जगप्रभा

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रविवार, 19 जुलाई 2015

138. एक स्थानीय रथयात्रा


       रथयात्रा मुख्यरुप से पुरी में ही होती है, मगर अन्यान्य शहरों-कस्बों में भी स्थानीय रथयात्रायें आयोजित की जाती हैं। पुरी मैं गया जरुर हूँ, मगर रथयात्रा के अवसर पर नहीं- जब हम वहाँ गये, रथों का निर्माण कार्य चल रहा था।
बरहरवा का एक पड़ोसी शहर है- पाकुड़। वहाँ की रथयात्रा के बारे में बचपन से सुनता आया हूँ, मगर आज तक कभी वहाँ की रथयात्रा में गया नहीं।
कल संयोग से एक रथयात्रा देखने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। यह शहर था- नलहाटी, बंगाल का एक शहर। हमलोग (दो परिवार) तारापीठ से माँ तारा की पूजा करके लौट रहे थे। बता दूँ कि तारापीठ रामपुरहाट से कोई दस किलोमीटर दूर एक शक्तिपीठ है- पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव के ताण्डव नृत्य के समय सती के आँख का मणि (तारा) यहाँ गिरा था। शनिवार को यहाँ काफी भीड़ होती है। ऊपर से, इस शनिवार को रथयात्रा/ईद की छुट्टी थी, सो भीड़ कुछ ज्यादा ही थी। बँगला कैलेण्डर के श्रावण मास की भी शुरुआत हो चुकी है। अत्यधिक भीड़ के कारण मन्दिर के सामने बने चबूतरे से ही पण्डे के माध्यम से हमने पूजा-अर्चना की। दोपहर में रामपुरहाट से हमलोग वापस रवाना हुए।
पन्द्रह मिनट की रेलयात्रा के बाद हमलोग नलहाटी उतर गये। वहाँ एक परिवार में हम मेहमान बनकर रुके। सवा चार बजे करीब सड़क से वहाँ की रथयात्रा गुजरी। हमलोगों के लिए यह पहला अवसर था जब हम कोई रथयात्रा देख रहे थे। सैकड़ों लोग अलग-अलग दल में "हरे राम-हरे कृष्णा" गाते हुए और नाचते हुए चल रहे थे। भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा लकड़ी के एक रथ पर सवार थी। रथ को रस्सी से खींचा जा रहा था।
सैकड़ों लोगों की इस भीड़ में हर उम्र की, हर वर्ग की स्त्रियाँ और पुरुष मौजूद थे। सभी "हरे रामा-हरे कृष्णा" की धुन पर भाव-विभोर हो रहे थे। पहली बार मैंने देखा कि इन चार शब्दों- हरे रामा हरे कृष्णा- को कितनी धुनों में गाया जा सकता है और इन धुनों पर कितनी शैलियों में नृत्य किया जा सकता है! किसी दल का मुख्य वाद्य परम्परागत मृदंग था, तो किसी दल के पास "ताशा" था, किसी के पास "नाल" था, तो किसी दल के पास था- "कांगो"। सबकी धुन अलग-अलग और उन धुनों पर नृत्य करने वालों की शैलियाँ भी अलग-अलग! कुछ किशोरियों-युवतियों का सामूहिक नृत्य तो देखने लायक था!  
रथयात्रा के साथ ही साथ प्रसाद वितरण भी चल रहा था। घरों से निकलकर महिलायें पूजा कर रहीं थीं, तो पुरुष एक बार रथ की रस्सियों को हाथ लगाकर ही स्वयं को भाग्यशाली महसूस कर रहे थे। पता चला, आज शाम सभी घरों में "जलेबियाँ" जरुर खायी जायेंगी। हम जिस घर में मेहमान थे, उनकी मिठाईयों की भारी-भरकम दुकान है। प्राय: दर्जन भर किस्म की मिठाईयाँ हम पहले ही छक चुके थे। रथयात्रा के बाद जलेबी- वास्तव में "इमरती"- भी हमने खायी। पता चला, आज रात ग्यारह बजे तक दुकान में जलेबियों के लिए लाईन लगी रहेगी!
खैर, वहाँ से एक और परिचित के घर हम गये। संयोग से, हमारी (अगली) ट्रेन थोड़ी लेट थी, सो वहाँ भी कुछ समय हम बिता पाये।
लौटते समय पता चला, हमारे पहले वाले मेजबान के घर में हमारे लिए "दालपूरी" और खीर को पैक कर दिया गया है- रात के खाने के लिए। पता चला, रथयात्रा की रात दालपूरी और खीर बनाने-खाने का रिवाज भी है!  
रात सवा नौ बजते-बजते हम बरहरवा स्टेशन पर थे।

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