"कजंगल"
एक त्रैमासिक पत्रिका का नाम था। बात 1981-83 की है। इसे हमारे बरहरवा का
"अभियात्री" क्लब प्रकाशित करता था। "सॉरेश सर" यानि आनन्द
मोहन घोष इस क्लब के एक तरह से सर्वेसर्वा हुआ करते थे। यह पत्रिका थी तो बँगला
की, लेकिन इसमें हिन्दी विभाग भी हुआ करता था। दुर्भाग्य से, मेरे संग्रह में
कजंगल का जो अंक है, उसमें हिन्दी विभाग नहीं है। सम्पादकीय विभाग की ओर से एक
सूचना छपी हुई है (विषय सूची के नीचे) कि अपरिहार्य कारणों से इस बार हिन्दी विभाग
नहीं छप रहा है।
हम
तब 8वीं-9वीं के छात्र थे। हमने पिताजी से पूछा कि पत्रिका का ऐसा विचित्र नाम
क्यों रखा गया है? कोई बढ़िया-सा नाम क्यों नहीं रखा? पिताजी ने हँसते हुए बताया कि
तुम्हारे सॉरेश सर (वे हमारे ही उच्च विद्यालय के शिक्षक थे, लेकिन 'बी' सेक्शन,
यानि बँगला विभाग के- इसलिए मेरा सीधा परिचय उनसे नहीं था) बहुत ही विद्वान, बहुत
ही प्रतिभाशाली युवक हैं। उन्होंने ही यह खोज निकाला है कि महाभारत काल में देश के
जिस हिस्से को "कजंगल" कहा गया है, वह हमारा यही इलाका है। यह क्षेत्र
गंगा और राजमहल की पहाड़ियों के बीच स्थित मैदानी इलाका है, जो एक तरफ तेलियागढ़ी
किले और दूसरी तरफ गुमानी-गंगा के संगम तक फैला हुआ है। हमने पाया कि सॉरेश सर की
टीम हर अंक में हमारे इलाके के किसी एक गाँव का इतिहास छापती थी। जो अंक मेरे पास
है, उसमें "कांकजोल" गाँव के बारे में जानकारी है। कांकजोल एक तरह से
कजंगल का ही अपभ्रंश है।
सॉरेश
सर ने एकबार हाई स्कूल के मैदान में खेल-कूद प्रतियोगिताओं का भी आयोजन करवाया था।
आज की पीढ़ी शायद यकीन न करे, मगर यह प्रतियोगिता एक तरह से ओलिम्पिक-जैसे कायदे के
साथ आयोजित हुआ था। बाकायदे मशाल जली थी और बाकी सभी कायदों का पालन हुआ था। हमने
भी भाग लिया था। हमारी टीम का नाम "विन्दुधाम किशोर टीम" था। वैसे तो
हमारे क्लब का नाम "आजाद हिन्द संघ" था, पर पिताजी ने बताया कि वे लोग अपने
जमाने में विन्दुधाम किशोर टीम के नाम से प्रतियोगिताओं में भाग लेते थे, सो
हमलोगों ने भी यही नाम अपनाया था।
"मिशन ग्राउण्ड" में हमने एकबार सॉरेश
सर को क्रिकेट प्रतियोगिता में खेलते हुए भी देखा था।
एकबार हमने "मिड्ल स्कूल" में उन्हें
एक छोटा-सा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करवाते हुए देखा देखा था- शायद यह
"सुकान्तो भट्टाचार्य" से सम्बन्धित कोई कार्यक्रम था।
हमारे हाई स्कूल के हॉल में एक बड़ा कार्यक्रम
उन्होंने आयोजित करवाया था, जो मुन्शी प्रेमचन्द को समर्पित था। यह बहुत ही ऊँचे
दर्जे का कार्यक्रम था।
सॉरेश सर के नेतृत्व में अक्सर नाटकों का आयोजन
होता था। बरहरवा की अन्य नाट्य-मण्डलियाँ जहाँ "लोकप्रिय" किस्म के नाटक
खेलती थीं (हिन्दी, बँगला, भोजपुरी तीनों भाषाओं में बहुत नाटक आयोजित होते थे
बरहरवा में), वहीं सॉरेश सर की मण्डली ऊँचे दर्जे के नाटक खेलती थी- क्लासिक नाटक,
जैसे कि "मानुष नामे मानुष", "नील रक्त", इत्यादि।
सॉरेश सर अपनी युवावस्था में ही दुनिया छोड़ गये
थे। बताया जाता है कि वे भूटान की यात्रा पर गये थे और वहीं से आकर उन्हें कोई
बुखार हो गया था, जो जानलेवा साबित हुआ।
मेरे पास कजंगल का जो अंक है, उसमें (अन्दर) सॉरेश
सर के देहावसान की सूचना छ्पी हुई है, यानि कि यह अंक उनकी मृत्यु के कुछ ही समय
बाद प्रकाशित हुआ था। आवरण पर सम्पादक के रुप में अनिल कुमार बसु के साथ कृष्णगोपाल राय का नाम छपा है। के.जी. राय सर आज फेसबुक पर सक्रिय हैं। आशा है, वे इस
आलेख पर अपनी कोई टिप्पणी देना पसन्द करेंगे।
खैर, मेरे पास कजंगल का जो अंक
मौजूद है, उसकी PDF प्रति को हमने अपने एक ब्लॉग "जगप्रभा ई'बुक्स" पर डाल दिया है-
वहाँ से कोई भी उसे डाउनलोड (बेशक, निश्शुल्क) कर सकता है। उम्मीद है, नीरज जैन और
राजीव रंजन भी डाउनलोड कर सकेंगे, जिनके साथ आज सुबह इन विषयों पर चर्चा हुई थी। लिंक यहाँ
है।***
इंसान चले जाते हैं लेकिन उनकी यादें उनके अच्छे कार्य हमेशा यही रहते हैं साथ हमारे
जवाब देंहटाएंजी, बिल्कुल सही।
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
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