हमारे
मुहल्ले में बहुत पहले मलेरिया विभाग के एक अधिकारी किराये पर रहते थे- हीरालाल
साहा। उनके बड़े सुपुत्र को हमलोग 'ललन भैया' के नाम से जानते थे। उन्होंने ही पहली
बार मुहल्ले में सरस्वती पूजा का आयोजन किया था- बेशक, मुहल्ले के बड़े बच्चों को
साथ लेकर। शायद यह 1973-74 की बात है। बैनर टांगा गया था- बाल संघ या बालक संघ का।
बाद में मेरे बड़े भाई और उनके मित्रों ने इस आयोजन को जारी रखा। बैनर दिया गया-
'आजाद हिन्द संघ' का। कुछ वर्षों बाद बाद हमलोगों ने मोर्चा सम्भाला, फिर बाद में अगली
पीढ़ी के लड़कों ने। फिर खुले जगहों की कमी के कारण तथा मुहल्ले में एक समय किशोरों
एवं नवयुवाओं की संख्या कम हो जाने के कारण यह आयोजन बन्द हो गया। बीच में दो-एक
बार हुआ, मगर नियमित नहीं रहा।
इस
साल देखने में आया कि मुहल्ले में उत्साही किशोरों और नवयुवाओं की संख्या
अच्छी-खासी हो गयी है। उनलोगों ने गणेश पूजा का आयोजन किया है। कोई 'बैनर' नहीं है।
शायद यह आयोजन नियमित रहे और सरस्वती पूजा का भी आयोजन होते रहे। इन उत्सवों के
बहाने मुहल्ले में रौनक हो जाती है, बच्चे बहुत उत्साहित हो जाते हैं। हो सकता है
कि इसबार एक 'पक्का पूजा स्थल' ही बनाने पर विचार हो, जहाँ गाहे-बगाहे कोई उत्सव
मनाया जाता रहे, और प्रतिदिन शाम को आरती या भजन का कार्यक्रम होते रहे।
ये
त्यौहार ही तो हैं, जो जीवन में रंग भरते हैं, उमंग लाते हैं... वर्ना एकरस और
एकरंग जिन्दगी बीतेगी...
व्यक्तिगत
रुप से हम तो यही चाहेंगे कि 'पूजा स्थल' के बजाय 'वॉलीबॉल' का एक पक्का कोर्ट
बने, जहाँ शाम को बच्चे एकाध घण्टा खेलें, पर वास्तव में, ऐसी जगह मुहल्ले में बची
नहीं है। पुस्तकालय के बारे में तो आज के जमाने में सोचा भी नहीं जा सकता। हमलोगों
ने कभी एक पुस्तकालय चलाया था। जहाँ तक खेल के मैदान की बात है- उस जमाने में जगह
की कोई कमी नहीं थी- कहीं भी हमलोग खेल-कूद का मैदान बना लिया करते थे- कहीं भी
पूजा आदि का आयोजन कर लिया करते थे!
(बीच में उठना पड़ गया था, इसलिए आलेख अधूरा रह
गया था।)
हमारे
बचपन में गणेश चतुर्थी के दिन गणेश की प्रतिमा सिर्फ हमारे प्राथमिक विद्यालय श्री
अरविन्द पाठशाला (मेरे चाचाजी इसके प्रधानाध्यापक थे) में स्थापित होती थी- बाकी
आस-पास के इलाके में कहीं भी गणेश की प्रतिमा की पूजा की परम्परा नहीं थी।
एक विचित्र परम्परा कायम थी कि इस दिन शाम के
समय अगर चाँद दिख जाय, तो सात घरों के छप्पर पर कंकड़ फेंकने होते थे। बस,
गणेश-चतुर्थी को इसी रुप में जाना जाता था। इसे 'चकचन्दा' या ऐसा ही कुछ कहते थे।
बच्चों की मौज थी- जानबूझ कर चाँद देख लेते थे
और फिर शात छप्परों पर कंकड़ फेंकने निकल पड़ते थे। बच्चे अक्सर यह काम झुण्ड बनाकर
करते थे। घरों के बड़े-बुजुर्ग़ डाँटते-फटकारते भी थे, पर इसका भी काट निकाल लिया
गया था कि आज की शाम गालियाँ सुनना शुभ होता है। मुहल्ले के सिनेमा हॉल की विशाल
छत टीन की थी- उसपर खूब कंकड़ बरसते थे।
***
ये त्यौहार ही तो हैं, जो जीवन में रंग भरते हैं, उमंग लाते हैं... वर्ना एकरस और एकरंग जिन्दगी बीतेगी... बिलकुल सही बात, इसी बहाने आपसी मेल-मिलाप संभव हो पाता है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
आपको गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं