मेरी एक दबी हुई इच्छा थी कि 'जय जवान' के बाद
'जय किसान' की भी भूमिका निभाऊँ, मगर हो नहीं पाया था। पिताजी, दादाजी डॉक्टर होने
के साथ-साथ खेती-बाड़ी पर पूरा ध्यान रखते थे। हमारी पीढ़ी ने नजरअन्दाज कर दिया।
दूसरी बात, रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मुझे सख्त नफरत है, जबकि जो लोग
खेती-बाड़ी देख रहे हैं, वे इन्हें अनिवार्य मानते हैं। लाख समझाने का भी असर नहीं
पड़ता। मिट्टी सख्त हो रही है, उत्पादन घट रहा है- यह उन्हें भी दिख रहा है, पर वे
भी मजबूर हैं। जैविक खेती के बारे में जानकारियाँ हासिल कर मैंने उनलोगों तक
पहुँचाई, पर वे उत्साहित नहीं हुए। मुझे लग रहा था कि मुझे ही कमर कसना होगा।
अभी हाल में गाजियाबाद स्थित NCOF (National Centre for Organic Farming) द्वारा तैयार "बायो-डिकम्पोजर" की
जानकारी मिली। इस जानकारी के आधार पर यही लग रहा है कि जैविक खेती "आसानी
से" की जा सकती है। शुरुआत सोच रहा हूँ मशरूम उगाने से किया जाय। यह काम यहाँ
घर पर रहते हुए ही किया जा सकता है। सफल होने पर अपने खेत में (सात किमी दूर है)
जैविक तरीके से सब्जियाँ उगाई जायेंगी। वह भी सफल रहने पर तीसरे चरण में
चावल-गेहूँ पर इसका प्रयोग किया जायेगा।
अर्द्ध-सरकारी संस्थान में नौकरी दस साल और बची
है, मगर मन उचट चुका है। छोड़ने का इरादा पक्का कर लिया है। यानि जीवन की तीसरी
पारी खेलने का मन बना लिया है। हालाँकि बँगला से हिन्दी अनुवाद का जो मेरा शौकिया
काम है, वह भी जारी रहेगा।
कभी-कभी सोचने से हैरान होना पड़ता है कि मेरे-जैसे
आजाद और कलाकार तबीयत के आदमी ने 20 + 10 साल नौकरी करते हुए बिता कैसे लिया! (यह
और बात है कि नौकरी हमने अपने अन्दाज में की है।)
...अब आजाद जिन्दगी!
जिन्दगी, आ रहा हूँ मैं...
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