कहने
की आवश्यकता नहीं, श्री अरविन्द पाठशाला से लेकर बरहरवा उच्च विद्यालय की दसवीं
कक्षा तक वह हमेशा "टॉपर" ही रहा था। 1984 में मैट्रिक करने के बाद वह
पटना सायन्स कॉलेज चला गया, फिर वहाँ से IIT, पवई। दोनों संस्थानों में वह हमेशा
"टॉपर" रहा। आई.आई.टी. के बाद वह भिलाई चला गया। वहाँ नौकरी के साथ-साथ
वह छात्रों को IIT के लिए
तैयार भी करता था। काफी व्यस्त रहता था।
हमारे
जो सहपाठी बरहरवा से बाहर गये, उनमें से कई अक्सर यहाँ आते-जाते रहते हैं, पर कई
तो एक बार भी नहीं आये। संजय का एकाध बार ही आना हुआ था। सात-आठ साल पहले शायद कुछ
घण्टों के लिए उसका यहाँ आना हुआ था- हम मिल ही नहीं पाये थे।
फिल्म
"थ्री ईडियट्स" रिलीज होने के बाद हमलोगों ने उसे फोन करके बुलाया भी था
कि अबे, तुम्हीं हमारे "रेंचो" हो, एकबार आ भी जाओ! पर वह नहीं आया था।
कुछ
समय पहले उसने व्हाट्सएप पर "पैन्थर्स'84" नाम से एक ग्रुप बनाया और आज
करीब पचास सहपाठी हम उस ग्रुप में हैं। अब उसने कोचिंग क्लास चलाना छोड़ दिया है-
बस रविवार को इच्छुक छात्रों को बुलाता है- समाजसेवा के रुप में। शायद इसलिए अब
उसे समय मिलने लगा है। दरअसल, हमलोगों ने नवीं-दसवीं कक्षा में जो क्लब बनाया था,
उसका नाम "पैन्थर्स क्लब" था- यही नाम उसने चुना। हमलोग बाकायदे एक
लाईब्रेरी चलाया करते थे।
खैर, इस साल रामनवमी
पर वह आया यहाँ। हमारे यहाँ रामनवमी एक
"महोत्सव" है। यह "पहाड़ी बाबा" की देन है, जो 1960 से '72 तक
यहाँ बिन्दुधाम में रहे थे। आजकल महीने भर का मेला लगता है इस अवसर पर।
यहाँ
आने से पहले वह कोलकाता में हमारे प्रधानाध्यापक् से मिल आया था। दुःख की बात है कि
अभी वे अस्वस्थ हैं- हम सब उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हैं। यहाँ आकर
यहाँ रह रहे पूर्व-शिक्षकों से भी वह मिला। और हम कुछ दोस्त तो मिले ही।
ब्लॉग
पर इस आलेख को लिखने का कारण यह है कि कल रात (14 अप्रैल को) एक वाकया हो गया। रात
दस बजे जब वह वनांचल एक्सप्रेस पर सवार हुआ, तब उसे पता चला कि अरे जा! टिकट तो
बीते दिन की है- यानि 13 अप्रैल की। दरअसल, 14 अप्रैल को आसनसोल स्टेशन पर सुबह
साढ़े तीन बजे उसे दूसरी ट्रेन पर सवार होना था, जो भिलाई तक जाती। चूँकि उसने
रिजर्वेशन जनवरी में ही करा लिया था, इसलिए उसके दिमाग में सिर्फ "14
अप्रैल" तारीख ही घूमती रही। वह भूल गया कि बरहरवा से उसे 13 अप्रैल की रात
में ट्रेन पकड़नी है। आज वह एक दूसरी ट्रेन से हावड़ा गया और वहाँ से भिलाई जायेगा।
अब
हमारे जो भी दोस्त इस वाकये के बारे में सुनेंगे, वे एक ही सवाल करेंगे कि "हमारे
"फर्स्ट-ब्वॉय" से यह गलती भला कैसे
हो गयी?"
...तो
इसके जवाब में हम आइंस्टाईन का एक वाकया सुनाना चाहते हैं।
एक समय में आइंस्टाईन के पास दो बिल्लियाँ थीं-
एक बड़ी, दूसरी छोटी। आइंस्टाईन ने घर के मुख्य दरवाजे पर दोनों बिल्लियों के
आने-जाने के लिए दो छेद बनवाये- एक बड़ा छेद और दूसरा छोटा छेद। बड़ा छेद बड़ी बिल्ली
के लिए और छोटा छेद छोटी बिल्ली के लिए।
आइंस्टाईन के दिमाग में यह नहीं आया कि जो छोटी
बिल्ली है, वह बड़े छेद से ही आना-जाना कर लेगी- उसके लिए अलग से छोटे छेद की जरुरत
नहीं!
कहने का मतलब... ऐसा होता है... ऊँची आई.क्यू.
वाले दिमाग वालों के साथ भी कभी-कभी ऐसा होता है...
ऐसे ही पल जिन्दगी में यादगार होते हैं...
***
तस्वीर में- लाल घेरे में संजय।
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 16/04/2019 की बुलेटिन, " सभी ठग हैं - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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