कुछ दिनों पहले अभि ने कोलकाता से फोन पर अपनी माँ से कहा कि वह
गिटार सीखना चाहता है। वह अनुमति माँग रहा था। हमदोनों ने तुरन्त सहमति दे दी।
हमें याद आया कि जब हम अभि की उम्र के थे, तब हम भी गिटार सीखना
चाहते थे। तब हम आवडी में थे। 1986-87 की बात है। पता चला कि आवडी में एक संगीत
विद्यालय है। हम पहुँच गये। दुमंजिले पर एक बड़े हॉल में संगीत की कक्षा चल रही थी।
करीब तीस-चालीस विद्यार्थी हाथों में वायलिन लिए बैठे थे और सफेद दाढ़ी वाले गुरूजी
बैठकर शिक्षा दे रहे थे। गुरूजी के सामने पहुँचकर हमने जानना चाहा कि क्या यहाँ
गिटार की शिक्षा भी दी जाती है? विनम्र मुस्कुराहट के साथ गुरूजी ने 'ना' में सिर
हिलाया। कहा- यहाँ वायलिन की शिक्षा दी जाती है।
आज तीस वर्षों के बाद जब उस दृश्य की याद आती है, तो चूल्लू भर
पानी में डूब जाने को दिल चाहता है। फिर उम्र का अक्खड़पन और अल्हड़पन समझ कर सन्तोष
कर लेना पड़ता है। काश, वहाँ वायलिन सीखना हमने शुरु कर दिया होता! खैर, हमें कुछ न
कुछ करने से मतलब था और कुछ दिनों बाद हम तैराकी टीम में शामिल हो गये। वैसे भी,
गीत-संगीत सीखने का गुण हममें नहीं था।
तैराकी के सिलसिले में
ही एकबार कानपुर जाना हुआ। 1988 या 89 की शुरुआत थी। जाड़े में स्वीमिंग पूल की
सफाई चल रही थी और हमें समय बिताने के लिए कुछ चाहिए था। एक संगीत विद्यालय में
फिर हम जा घुसे। इस बार हम दो थे। उस विद्यालय के गुरूजी 'सूरदास' थे। जैसा कि
होता है, व्यक्ति की एक ज्ञानेन्द्री सुप्त होने से दूसरी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्यादा
ही जाग्रत हो जाती हैं। तो वे गुरूजी सुर में थोड़ी-सी कमी को भी पकड़ लेते थे और
खूब रियाज करवाते थे। हमारे बारे में उन्होंने अनुमान तो लगा ही लिया होगा कि हम
संगीत नहीं सीख सकते, फिर भी, अपनी ओर से वे पूरी कोशिश करते थे हमें सिखाने की। वहाँ
हम सरगम का अभ्यास किया करते थे।
1991 में ग्वालियर जाना
हुआ। वहाँ तब स्वीमिंग पूल नहीं था। (बाद में बना।) हाँ, बैडमिण्टन का कोर्ट बहुत
बढ़िया था- लकड़ी का फर्श था। थोड़ा हाथ आजमाया वहाँ। पुराना अनुभव था ही। क्योंकि
आवडी में भी यदा-कदा खेलना होता था और घर में रहते हुए भी खेला करता था। (पिताजी
बैडमिण्टन के अच्छे खिलाड़ी थे।) मुश्किल यह है कि यह सिर्फ जाड़े का खेल है।
गर्मियों में क्या किया जाय? फिर संगीत विद्यालय खोजना शुरु किया।
इन पाँच वर्षों में मेरे
दिमाग से गिटार का भूत उतर चुका था। हमने जान लिया था कि गीत-संगीत में पहला स्थान
"गले" (कण्ठस्वर) का होता है; दूसरा, "बाँसुरी" या शहनाई-जैसे वाद्ययंत्रों का; तीसरा
"तार" वाले वाद्ययंत्रों का; और बाकी वाद्ययंत्रों का नम्बर इनके बाद ही
आता है। गिटार और वायलिन, दोनों भले तार वाले ही वाद्ययंत्र हैं, मगर गिटार को
जहाँ पाश्चात्य संगीत पर (आम तौर पर) बजाया जाता है, वहीं वायलिन को हमारे देश में
भारतीय संगीत पर बजाया जाता है। हमने यह भी जान लिया था कि "भारतीय"
संगीत जहाँ सिर यानि मस्तिष्क पर असर डालता है, वहीं "पाश्चात्य" संगीत
पैरों पर।
(भारतीय संगीत पर एक
सुन्दर आलेख परमहँस योगानन्द जी ने अपनी आत्मकथा 'योगी कथामृत' में लिख रखा है।
उसे हमने एक ब्लॉग पर साभार उद्धृत भी कर रखा है। उसे पढ़ने के लिए कृपया यहाँ
क्लिक करें।)
पता चला एक संगीत
विद्यालय तो है, मगर दूर है। पहुँच गये साइकिल लेकर। इस बार हमने सीधे पूछा
कि वायलिन सिखाने की व्यवस्था है क्या? पता चला, सप्ताह में दो-तीन दिन एक
रिटायर्ड सज्जन आते हैं, वे वायलिन सिखाते हैं। हमने सीखना शुरु कर
दिया।
कुछ भी नया जब हम सीखना
शुरु करते हैं, तो एक दौर ऐसा आता है कि लगता है कि कहाँ फँस गये- नहीं होने वाला,
मगर उस दौर को पार करते ही फिर आनन्द आने लगता है। हमने भी खूब मन लगाकर सीखा। गुरूजी
ने एक टूटा वायलिन भी दिया कि यह मरम्मत हो जायेगा- ठीक करवा लो। पता भी बताया-
ठीक करने वाले का। हमने करवा लिया। अब मेरा अपना वायलिन भी हो गया। कुछ समय बाद
गुरूजी ने विद्यालय आना छोड़ दिया और हमें अपने घर पर ही आने को कहा। मेरी
साइकिलिंग लगभग दोगुनी हो गयी- 7 के स्थान पर करीब 14 किलोमीटर जाना पड़ता था अब।
लेकिन मेरे लिए यह कोई समस्या नहीं थी। करीब चार साल हमने वायलिन सीखा- कई राग
बजाने लगाने थे हम। इस बीच दो बार स्वीमिंग चैम्पियनशिप में भी भाग लिया। अन्त
में, 1995 में ग्वालियर छोड़ने का समय आया।
दोस्तों का कहना था कि
तुम दो बार वायलिन का मरम्मत करवा चुके हो और इनमें जितना खर्च आया है कि उतने में
तुम नया खरीद सकते थे, तो यह अब तुम्हारा ही है। बात तो सही थी, मगर यही बात हम
गुरूजी के मुँह से सुनना चाहते थे। सो, ग्वालियर छोड़ने से पहले हम वायलिन लेकर
गुरूजी के पास गये। अफसोस, कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा और वायलिन लेकर रख लिया।
इसके बाद न नया वायलिन
लेना हुआ और न अभ्यास हुआ। एक शौक मेरा अधूरा रह गया। अब लगता है कि वायलिन मिल भी
जाय, तो शायद हम न बजा पायें... (वैसे, वायलिन पर दो पुस्तकें मेरे पास हैं। एक तो
संगीत कार्यालय, हाथरस की है- "बेला विज्ञान", 1980 का संस्करण।)
इस आलेख को इसलिए लिखा
कि अभि को पता चल जाय कि गिटार सीखने से बेहतर है वायलिन सीखना। उसे इतना तो पता
होगा कि शरलॉक होम्स भी कभी-कभी वायलिन बजाते थे- यानि यह मस्तिष्क को आराम
पहुँचाने तथा उसमें नयी ऊर्जा भरने में सहायक होता है।
अब रही बात कि इस आलेख
का नाम "बेला" क्यों है? दरअसल, हमने पढ़ा कि "बेला" एक पुराना
भारतीय वाद्ययंत्र था, जो पश्चिम में जाकर "Voila" बन गया।
"वॉयला" का ही परिष्कृत रुप "वायलिन" है। यानि हमारी
"बेला" ही यूरोप जाकर "वायलिन" के रुप में परिष्कृत होकर वापस
भारत आ गयी है...
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