साहेबगंज और मनिहारी के बीच जो स्टीमर सेवा (इसे एल.सी.टी., लाँच, या जहाज कहते हैं) चलती
है, उससे हमने कई बार यात्रायें
की हैं। कई अनुभवों का जिक्र इस ब्लॉग पर है। आज एक और अनुभव का जिक्र कर रहे हैं-
आज के अखबार में प्रकाशित एक खबर को पढ़कर उस अनुभव की याद आ गयी है।
वाकया ऐसा है कि बीच
गंगा में चलते-चलते स्टीमर अचानक एक छोटे-से दियारा की ओर मुड़ने लगा। हम सभी यात्री चकित रह
गये कि स्टीमर अचानक इस निर्जन टापू की ओर क्यों मुड़ रहा है!
खैर,
स्टीमर ने उस निर्जन टापू के किनारे लंगर डाला और इसके बाद जहाज के स्टाफ लोगों की
बातचीत से पता चला कि इंजन का डीजल खत्म हो गया है! दरअसल, हुआ यूँ था कि सुबह
स्टीमर पर चढ़ाने के लिए डीजल के कुछ ड्रम घाट पर रखे हुए थे, जिन्हें स्टाफ लोग
चढ़ाना भूल गये थे। डीजल के ड्रम घाट पर ही रखे रह गये थे।
खैर,
यह मोबाइल का जमाना है, तुरत-फुरत में फोन किया गया और फिर एक छोटे स्टीमर पर
डीजल के उन ड्रमों को चढ़ाकर लाया गया। पूरा वाकया घण्टे-दो घण्टे से ज्यादा का
नहीं था। दिन का समय था, यात्रियों को कोई खास परेशानी भी नहीं हुई।
...मगर आज अखबार में हमने पढ़ा कि साहेबगंज से शाम को जो स्टीमर खुला, वह कोहरे में रास्ता भटक
गया और फिर रात भर के लिए वह एक ही स्थान पर लंगर डाले खड़ा रहा! एक तो कोहरे में लिपटी
सर्द रात और ऊपर से गंगा की सांय-सांय चलती ठण्डी हवायें। सोचकर भी सिहरन होती है कि
करीब डेढ़ सौ लोगों ने रात कैसे काटी होगी- बेशक, यात्रियों में बच्चे भी थे।
मनिहारी से नावों को रवाना किया गया, जो किसी तरह जहाज तक पहुँचे।
फिर सुबह उन नावों से ही यात्रियों को सकुशल मनिहारी पहुँचाया गया।
गंगा में शाम से ही कोहरा छाने लगता है- ऐसा बीते दो हफ्ते से हो
रहा है,
ऐसे
में साहेबगंज से शाम साढ़े चार बजे स्टीमर को रवाना करने के फैसले को किसी भी लिहाज
से सही नहीं ठहराया जा सकता। खैर, उम्मीद है कि यात्रियों को और स्टीमर के परिचालकों को-
दोनों को सबक मिल गया होगा।
सुन्दर
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