मेरा
ननिहाल राजमहल है- बरहरवा से 26 किलोमीटर दूर। जब हम बच्चे थे, तब माँ हमारा हाथ पकड़कर हमें राजमहल जाया करती थी। बरहरवा
जंक्शन से रवाना होकर हम तीनपहाड़ जंक्शन पर उतरते थे और वहाँ कुछ देर इन्तजार करते
थे। तीनपहाड़ से एक शटल ट्रेन राजमहल को जाती थी। (अब भी चलती है।) तब हम माँ को परेशान किया करते
थे- कब आयेगी ट्रेन? राजमहल में हमें लेकर जब माँ नीलकोठी के पास अपने घर- हमारे
नानीघर- के पास पहुँचती थी, तब मुहल्ले से लेकर घर तक हलचल मचती थी- अगे, प्रभा'दी
ऐलको... । माँ उस घर की सबसे बड़ी बेटी/सन्तान थीं।
प्रायः चार दशक बीत
गये। आज मैं माँ को स्कूटर पर बिठाकर राजमहल ले गया- ताकि वह नानाजी के अन्तिम
दर्शन कर सके। मेरे नानाजी (माँ के मेजो बाबू) श्री हरिचरण राय का आज देहावसान हुआ।
वे स्वस्थ ही थे- हृदयगति रुकने से चल बसे। और दो वर्ष में वे शतायु पूरी कर
लेते...
***
जब मैं किशोर था, तब
एकबार नानाजी ने मुझे डिक्शनरी के पन्ने पलटते हुए देखा। मैं गर्मियों की
छुट्टियों में नानीघर में था और दोपहर का समय बिताने के लिए कुछ न मिला, तो
डिक्शनरी ही उठा लिया था मैंने। नानाजी ने देखा, तो कहा, छोड़ो यह सब। और उन्होंने
रामचरित मानस निकाला। उसमें से "पुष्पवाटिका" वाला अंश उन्होंने चुना और
पढ़कर मुझे समझाना शुरु किया। बहुत ही विस्तार से, बहुत ही रस लेकर उन्होंने उस
अध्याय को मुझे पढ़कर सुनाया था।
***
2006 में मैं नानाजी
के पास इस माँग के साथ गया था कि अगर उनके पास कुछ "लिखा" हुआ हो, तो वे
मुझे सौंप दें। पता चला, कुछ खास बचा हुआ नहीं है- समय के प्रवाह में ज्यादातर
चीजें बह गयीं हैं। फिर भी, इधर-उधर पुरानी डायरियों में खोजने के बाद दो-चार
कवितायें मिली थीं। एक कविता और एक अनुवाद को मैंने अपनी त्रैमासिक पत्रिका
"मन मयूर" में प्रकाशित किया था। उन्हें ही यहाँ प्रस्तुत करता हूँ:
रुमानी कवियों से-
-हरिचरण राय, राजमहल
कंकालों की काया देखो
भोले शिशुओं का जर्जर तन
आश्रयहीन उन अबलाओं के
सुन लो करूण क्रन्दन।
सखे, गुलामी
के कष्टों को
आजादी के सुखों से तोलो
व्यर्थ क्यों कल्पना-जगत में
ढ़ूँढ़ रहे हो क्या तुम बोलो?
देखो उनको जीवित ही जो
दीनों के अस्तितव मिटाते
हद से ज्यादा शोषण कर भी
स्वारथ-वश अब भी न अघाते।
सखे, गरीबों
के अभाव औ’
धनिकों के वैभव न भूलो
व्यर्थ क्यों कल्पना-जगत में
ढ़ूँढ़ रहे हो क्या तुम बोलो?
देखो उन शोषित जन को
जो घोर निराशा के हैं मारे
भाग्य-भरोसे झेल रहें हैं
कष्ट गुलामी के ये सारे।
सखे, सोए
जन के उर-अन्तर में
क्रान्ति की ज्वाला दे डालो
व्यर्थ क्यों कल्पना-जगत में
ढ़ूँढ़ रहे हो क्या तुम बोलो?
इस कविता के साथ मेरी जो टिप्पणी थी, वह यूँ थी: "(इस कविता
का रचना-काल 1938 है, जब देश गुलाम था और
कवि दशम वर्ग के विद्यार्थी थे। प्रायः सात दशकों बाद, आश्चर्यजनक
रुप से आज भी अपना देश कुपोषण व शोषण की समस्याओं से ग्रस्त है और आज फिर एक
क्रान्ति की जरुरत महसूस की जा रही है! –सं)"
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"मन मयूर" के दूसरे अंक में उनका निम्न अनुवाद प्रकाशित
हुआ, जिसके बारे में अब कुछ कहने की जरुरत नहीं है:
समाधिलेख (An Epytaph)
-रॉबर्ट
लुईस स्टीवेन्सन
तारों भरे गगन के
नीचे
मेरी समाधि होने
दे
भोग चुका हूँ
जीवन के सुख
सहर्ष मुझे मर
जाने दे।
मेरी समाधि पर लिख देना-
‘‘इसी जगह वह पड़ा हुआ है
जहाँ थी उसकी उत्कण्ठा भारी
सागर से घर लौटा नाविक
घर लौटा पर्वत से शिकारी।’’
(अनुवाद: हरिचरण राय)
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