चित्र में चावल के जिन दानों को आप देख रहे
हैं, वे देखने में मामूली चावल लगेंगे, मगर इनका जो स्वाद है, वह जबर्दस्त है! यह
एक खुशबूदार चावल है। हमारे
इलाके में इस चावल का इस्तेमाल आम तौर पर खीर बनाने के लिए किया जाता है। चावल के इस किस्म को "खिस्सापाती" कहते हैं हमारे यहाँ।
वैसे, इसका एक बाजार-नाम भी है, जो मुझे बहुत पसन्द आता है-
"बादशाह-पसन्द"!
शायद आप जानते हों कि
बिहार-बंगाल-उड़ीसा-असम इत्यादि राज्यों में आम तौर पर "ऊष्णा" चावल खाया
जाता है, जबकि उत्तर-प्रदेश, दिल्ली इत्यादि राज्यों में "अरवा" चावल।
धान से जो चावल बनता है, वह "अरवा" ही होता है, मगर देश के पूर्वी
हिस्सों में धान को पहले उबाल कर फिर उसका चावल बनाया जाता है और इस प्रकार वह
"ऊष्णा" या "मोटा" चावल बन जाता है। अरवा चावल खाने वाले मोटा
चावल खाने में नाक-भौं सिकोड़ेंगे, तो मोटा चावल खाने वाले अरवा चावल नहीं खा
पायेंगे। उपर्युक्त "खिस्सापाती" का मोटा चावल नहीं बनाया जाता। इसीलिए
हमारे इलाके में इसका प्रयोग खीर, पुलाव या खिचड़ी बनाने में ही होता है।
चावल को
"ऊष्णा" का रुप क्यों दिया जाता है, यह मैं समझ नहीं पाया हूँ। शायद
इससे यह सुपाच्य हो जाता है। और शायद इससे चावल का भण्डारण समय बढ़ जाता है। जो भी
हो, मैं वर्षों तक दोनों में कोई भेद समझ ही नहीं पाता था। बाहर रहने के दौरान अरवा
चावल खाता था और घर आने पर ऊष्णा चावल। मुझे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। शायद इसके
पीछे कारण यह है कि मैं खाने का शौकीन कभी नहीं रहा। श्रीमतीजी की भी यही शिकायत
है कि कभी तो कोई फर्माइश कर दिया करो कि आज नाश्ते में यह बनाओ या वह बनाओ। मगर
मैंने कभी कुछ नहीं कहा। बचपन में, या नौकरी के दौरान छुट्टियों में घर आने पर भी
कभी माँ से फर्माइश नहीं करता था। माँ खुद ही कभी दूध-पीठा, कभी 'ढक्कन वाली रोटी'
बना दिया करती थी। श्रीमतीजी भी नाश्ते का जायका बदलते रहती है- खुद ही। वैसे, अब
साहबजादे फर्माइश करना सीख गये हैं।
खैर, बात
बादशाह-पसन्द की। यह जो किस्म है चावल की, इसकी उपज बिहार-झारखण्ड के दूसरे
हिस्सों में होती है या नहीं, पता नहीं। अगर नहीं होती, तो जान लीजिये कि यह हमारे
इलाके की "एक्सक्लूसिव" वैरायटी है, जो सिर्फ गंगा और गुमानी नदियों के
संगम वाले क्षेत्र में पैदा होती है। अगर ऐसा ही है, तो सहज ही अनुमान लगाया जा
सकता है कि इसका जो स्वाद और सुगन्ध है, वह गंगा और गुमानी नदियों के जल के कारण
है। बेशक, राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी की मिट्टी भी तीसरा कारक होगी। इसका फलन
बहुत कम है और इसलिए किसान इसे लगाने से बचते हैं। मगर इसकी कीमत ज्यादा होती है,
इससे किसानों को आर्थिक नुकसान नहीं होता। मगर फिर भी, हमारे यहाँ के किसान
"स्वर्णा" या ऐसी ही किस्मों के धान ज्यादा लगाते हैं, जिनका फलन बहुत
ज्यादा है- ये "हाइब्रिड" किस्में हैं। हाइब्रिड के चक्कर में देशी किस्में
लुप्त हो रही हैं। कई किस्में लुप्त हो चुकी हैं। किसानों के लिए सालभर तक बीज
सम्भाल कर रखना अब मुश्किल काम है। खेत जोतो, ब्लॉक से जाकर बीज ले आओ- काम खत्म!
अभी तक यह
"खिस्सापाती" या "बादशाह-पसन्द" की किस्म बची हुई है- इसे मैं
सौभाग्य मानता हूँ। श्रीमतीजी उ.प्र. की हैं- उनको अरवा चावल ही चाहिए। साहबजादे
को भी यही चाहिए और मुझे भी "अरवा" व "ऊष्णा" चावल के स्वाद
में अन्तर का अनुभव करवा दिया गया है, सो अब हर साल इस खिस्सापाती का इन्तजाम करना
पड़ता है। इसबार भागीदार पर बहुत जोर डाल कर अपने ही एक टुकड़े खेत के आधे हिस्से
में इसे रोपवाया था- यह उसी का चावल का नमूना है।
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