15 मार्च 14/जोगीरा
वर्षों पहले (करीब दस साल पहले) पटना के बाकरगंज से 'जोगीरा' का
एक 'कैसेट' खरीदा
था। हर
होली में उसी को झाड़-पोंछ कर चला लिया करता था।
अभी कुछ
रोज पहले साहेबगंज में था तो वहाँ फुटपाथ से एक सीडी खरीदी- जोगीरा का। ज्यादातर वही गाने हैं, जो कैसेट में हैं- सर्वानन्द ठाकुर, ओमप्रकाश सिंह वगैरह के गाये हुए।
बता
दूँ कि आम तौर पर भोजपुरी में जो होली के जो फूहड़ गाने बजते हैं, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ। मैं जोगीरा की बात कर रहा हूँ, जिनमें गजब की मस्ती होती है।
कोई
जमाना था, जब हमारे बरहरवा में भी होली
से काफी पहले शाम को होली के गीत गाते हुए टोली घूमती थी- बेशक, उसमें "जानी" भी होते थे। "जानी" यानि लड़की बनकर नाचने
वाला पुरुष।
अन्तिम दिनों में वे पैसे भी लेते थे घरों से।
अब
कहाँ ढोल-मंजीरा, कहाँ
होरी-फाग और कहाँ जोगीरा.... अब बरहरवा भी शहर बन रहा है...
अब
तो इन्हीं सीडियों को थोड़ा-बहुत बजा लिया जाय, वही
बहुत है।
बहुतों को यह भी फूहड़पन लगता है।
मगर मेरी नजर में अगर आपने जोगीरा नहीं सुना होली पर, तो एक बहुत बड़ी चीज खो रहे हैं...
***
16 मार्च 14/सम्मत
रात
साढ़े नौ बजे सम्मत जला। सम्मत
यानि होलिका। सबकुछ वैसा ही था, जैसा हमारे बचपन में हुआ करता था, बस लोग-बाग कम
जुटे थे।
अब लड़के सम्मत की सामग्री कैसे जुटाते हैं, पता नहीं। हमलोग
होलिका दहन की सुबह कहीं से रेंड़ी (अरण्डी) का एक पेड़ काट लाते थे और उसे खेत के
बीच में गाड़ देते थे। दोपहर बाद यमुना भगत के दरवाजे पर बच्चों, किशोरों, युवाओं
का हुजुम इकट्ठा हो जाता था- बैलगाड़ी की माँग लेकर। सिर्फ गाड़ी चाहिए होती थी
हमें- बैल नहीं। बैल बनने के लिए हमलोग ही काफी होते थे। कुछ बड़े लड़कों को
जिम्मेवारी देकर वे गाड़ी दे देते थे।
इसके बाद हो-हल्ला मचाते हुए बैलगाड़ी लेकर
बच्चों-किशोरों-युवाओं की यह टोली मुहल्ले-मुहल्ले घूमती थी और प्रत्येक घर से
लकड़ी, गोयठा (उपला), पुआल, इत्यादि इकट्ठा करके अरण्डी के गड़े पेड के चारों तरफ
जमा करती थी। दो-चार फेरों में ही काफी सामग्री इकट्ठी हो जाती थी।
रात पण्डित जी आकर पहले पूजा करते थे, उसके बाद प्रदीप के
दादाजी सम्मत को आग देते थे। प्रदीप के दादाजी का नाम चाहे जो रहा हो, पर वे
'घुरबिगना' नाम से जाने जाते थे- पता नहीं क्यों। मुहल्ले के प्रायः सभी लोग वहाँ
मौजूद होते थे। बाद में प्रदीप के पिताजी सम्मत को आग देने लगे और आज देखा- प्रदीप
ने पूजा के बाद सम्मत को आग दिया। मैंने रामेश्वर जी से पूछा- ऐसा क्यों कि इसी
परिवार के लोग सम्मत को आग देते हैं? कारण वे भी नहीं बता पाये। उल्टे उन्होंने एक
और त्यौहार का नाम लिया, जिसकी शुरुआत उसी घर से होती है।
खैर, जलते सम्मत के चारों तरफ घूमने तथा उस आग में चने और
जौ की झाड़ को जलाकर प्रसाद बनाने की परम्परा अब भी कायम है।
याद है कि कई बार इस क्रम में बदमाशियाँ भी होती थी। जैसे,
एकबार कल्याण क्रिश्चियन के खेत के बाड़ को जला दिया गया था; एक बार जयश्री टॉकीज
के जेनरेटर रूम की छत से सिनेमा हॉल की टूटी कुर्सियों-बेंचों को जबर्दस्ती उतार
लिया गया था; एकबार महावीर भगत के आँगन से कटे पेड़ के तने को लाकर जलते सम्मत में
डाल दिया गया था और एकबार ताड़ के पेड़ों पर लटकती कुछ 'लबनी' (मिट्टी की छोटी कलशी,
जिसमें रात भर रस इकट्ठा होता है) को पत्थर मारकर तोड़ दिया गया था। हालाँकि कभी
बात बढ़ी नहीं थी।
खैर, अब तक तो होली जल रही है। मगर जिस हिसाब से खेत-खलिहान
कालोनियों-मकानों में तब्दील हो रहे हैं, लगता नहीं है कि दस साल बाद होलिका दहन
के लिए ऐसी खुली जगह- मुहल्ले के अन्दर- कहीं बचेगी।
अब देखा जाय, कल होली कैसी मनती है...
***
17
मार्च 14/होली
सुबह-सुबह जयचाँद के साथ दिग्घी के तरफ
पहाड़ की तलहटी में बसे एक सन्थाली गाँव की ओर निकल गया। इस होली में शराब-बीयर कुछ
लेने का इरादा नहीं था। सो, खजूर का ताजा रस ले आया एक कैम्पर में। जयचाँद, उत्तम,
कुन्दन और सन्तोष भैया के साथ वही पीया गया। विनय भी साथ बैठा। दही-बड़ा, इमली बड़ा,
मठरी, निमकी का भी दौर चला।
अशोक की महफिल हर साल की तरह जमी हुई थी-
गाजे-बाजे, खाने-पीने के साथ। वहाँ भी गये हमलोग। पैर में प्लास्टर के कारण रंजीत
इस बार रंग नहीं खेल रहा था। उससे मिलने गये। दोपहर में महिलाओं की होली शुरु हुई-
देखकर लगा, असली होली तो यही है- बाल्टी भर-भर कर रंग एक-दूसरे पर उड़ेला जा रहा था।
वैसे, बच्चों की होली भी जबर्दस्त होती है। बस, पुरुषों की होली ही दारू-मुर्गा के
चक्कर में बेकार हो जाया करती है।
डेढ़ बजे नहा-धोकर, जितना रंग छूटा, उतना
छुड़ाकर खाना खाकर जब आराम के मूड में था, तब प्रमोद, रविकान्त, घनश्याम होली खेलते
हुए पहुँचे। साथ में कुष्माकर और अशोक भी पहुँचे। दही-बड़ा आदि खाया गया। इसके बाद
आराम किया।
हमारे इलाके में होली दो चरणों में होती
है- सुबह से दोपहर तक गीले रंग की होली, जो मौज-मस्ती, हुल्लड़, हो-हंगामे के साथ
होती है; और शाम को नये या अच्छे कपड़े पहन कर गुलाल की सूखी होली, जिसमें बड़ों के
पैरों पर गुलाल डाला जाता है, बच्चों के माथे पर गुलाल का टीका लगाया जाता है और
हमउम्र के गालों-बालों को गुलाल से भर दिया जाता है। इसी के साथ पकवानों का दौर भी
चलते रहता है।
फिलहाल वही गुलाल वाली होली शुरु हो गयी
है- शुरुआत बच्चे करते हैं- घर-घर जाकर बड़ों के पैरों पर गुलाल डालकर आशीर्वाद
लेते हुए.....
सामयिक और सुन्दर पोस्ट.....आप को भी होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@हास्यकविता/ जोरू का गुलाम
बहुत अच्छी पोस्ट है जयदीप जी... मैं खुद बचपन के गलियारे में टहल रही..
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