पिछले-से-पिछले
हफ्ते साहेबगंज
स्टेशन पर ढाई बजे वाली हमारी पैसेन्जर ट्रेन छूट गयी थी। अब ढाई घण्टे बाद अगली
ट्रेन थी। मैंने इस समय का सदुपयोग किया- "कृष्णसुन्दरी" की छायाकारी
करते हुए।
कृष्णसुन्दरी
आज परित्यक्ता है... बेचारी एक तरफ चुपचाप अकेली खड़ी रहती है.. हुंकार भरते
गर्वीले डीजल इंजनों को देखते हुए... उसपर बरसाती लतायें चढ़ आयी हैं...
हालाँकि पता
चला कि 17 सितम्बर को कृष्णसुन्दरी को सजाया-संवारा जाता है- विश्वकर्मा पूजा के
दिन।
एक जमाना था,
जब रेलगाड़ी या छुक-छुक गाड़ी में सफर का मतलब ही होता था- कृष्णसुन्दरी का साथ!
***
मुझे यह देखकर
खुशी हुई कि कुछ किशोर भी कृष्णसुन्दरी के प्रति आकर्षित होकर उसके चारों तरफ
चक्कर काट रहे हैं। मैंने उन्हें बताया कि यह अपने साथ कोयले तथा पानी का स्टॉक
लेकर चलती थी। पानी के लिए कुछ बड़े स्टेशनों पर विशालकाय नल लगे होते थे। एक बड़ी-सी
टंकी होती थी और एक विशाल तालाब हुआ करता था स्टेशन के पास में ही। बरहरवा में जो
विशाल "कल पोखर" है, उसे बाकायदे पाइप-लाईन के माध्यम से गुमानी नदी से
जोड़ा गया था। अब इस पोखर का करीब एक तिहाई हिस्सा (लम्बाई में) भर दिया गया है-
चौथा प्लेटफार्म बनाने के लिए।
***
खैर, भूमिका
लम्बी हो गयी। देखिये "कृष्णसुन्दरी" के कुछ चित्र... ये जंगली लतायें
ही आज इसका शृंगार हैं।
छायाचित्रों
के साथ मैंने एक रेखाचित्र भी जोड़ दिया है, ताकि नयी पीढ़ी वाले समझ सकें कि वह
"नल" कैसा होता था, जिससे भाप वाले इंजन में पानी भरा जाता था! (कहने की
जरुरत नहीं- रेखाचित्र मैंने खुद बनाये हैं- शायद आपको पता हो, मेरे तीन ही शौक
हैं- "शब्दचित्र", "छायाचित्र" और "रेखाचित्र"!)
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