शनिवार, 15 जनवरी 2011

हिन्दी हमारी




   हिन्दी में बिन्दी का प्रयोग इतना बढ़ गया है कि बेचारी ‘हिन्दी’ भी अब ‘हिंदी’ बन गयी है
      जहाँ अनुनासिक (नाक से) उच्चारण की आवश्यकता होती है, वहाँ बिन्दी का प्रयोग तो होता ही है, जैसे- संयम, कंस, हिंस्त्र इत्यादि। मगर लेखन और मुद्रण की कठिनाईयों को देखते हुए क, च, ट, त, प- वर्ग में भी बिन्दी के प्रयोग को- शॉर्टकट के रूप में- मान्यता प्रदान की गयी थी, जहाँ कि पंचमाक्षर (ङ, ञ, ण, न, म) अपने ही वर्ग के अक्षरों के साथ संयुक्त होते हैं।
अब तो स्थिति यह है कि आधिकारिक रुप से बिन्दी वाले शब्दों का ही प्रयोग करने के लिए कहा जाता है- शब्दों को उनके मूल रूप में लिखने का प्रचलन बहुत कम हो गया है। बहुतों को यह सही लगेगा, तो बहुतों को इससे दुःख भी है। (मैं दुःखी होने वालों में से हूँ।) ऐसा लगता है, शब्द अपना नैसर्गिक सौन्दर्य तथा लालित्य खो रहे हैं।
इस आलेख में मैं आपसे यह अपील नहीं करने जा रहा हूँ कि कृपया प्रत्येक शब्द को उनके मूल रूप में लिखें। (मैं खुद ‘पञ्चमाक्षर’ के स्थान पर ‘पंचमाक्षर’ लिख रहा हूँ।) बल्कि मेरा सिर्फ इतना अनुरोध है कि कृपया इतना हमेशा ध्यान में रखें कि आखिर किस पंचमाक्षर के बदले में आप बिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं, और कुछ शब्दों को उनके मूल रूप में ही लिखें। विशेषकर, ट, त और प वर्ग के मामले में। (कोई लाख सरकारी निर्देश दिखलाये, मगर इस प्रकार के लेखन को एक जुनून की तरह अपनाये रखें!)
आईये, जानते हैं कि किस प्रकार पंचमाक्षरों के बदले में बिन्दी का प्रयोग बढ़ता जा रहा है:-       
       
·        -वर्ग के पहले चार अक्षरोंके साथ जब इसका पंचमाक्षर  संयुक्त होता हैतब ङ् (आधा के बदले में बिन्दीका प्रयोग होता है
उदाहरणअङ्क ¼vš½ अंकशङ्ख ¼'k™½ = शंखगङ्गा ¼x›k½ गंगासङ्घ = संघ
·        -वर्ग के पहले चार अक्षरोंके साथ जब इसका पंचमाक्षर  संयुक्त होता हैतब ञ् (आधा के बदले में बिन्दीका प्रयोग होता है
उदाहरणचञ्चल = चंचलअञ्जन = अंजन। (ञ्+छ तथा ञ्+झ का कोई उदाहरण मुझे नहीं सूझ रहा।)  
·        -वर्ग के पहले चार अक्षरोंके साथ जब इसका पंचमाक्षर  संयुक्त होता हैतब ण् (आधा के बदले में बिन्दीका प्रयोग होता है
उदाहरणघण्टी = घंटीकण्ठ = कंठठण्ड = ठंड। (ण्+ढ का उदाहरण नहीं मिल रहा।)
·        -वर्ग के पहले चार अक्षरोंके साथ जब इसका पंचमाक्षर  संयुक्त होता हैतब न् (आधा के बदले में बिन्दीका प्रयोग होता है
उदाहरणदन्त = दंतग्रन्थ = ग्रंथहिन्दी = हिंदीगन्ध = गंध
·        -वर्ग के पहले चार अक्षरोंके साथ जब इसका पंचमाक्षर  संयुक्त होता हैतब म् (आधा के बदले में बिन्दीका प्रयोग होता है
उदाहरणचम्पा = चंपागुम्फ = गुंफअम्बा = अंबाआरम्भ = आरंभ।  
***
·        उपर्युक्त नियम संस्कृतनिष्ठ शब्दों पर लागू होते हैं। अन्य शब्दों पर बिन्दी का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा सकता है। (मैं तो जबर्दस्ती ‘इंटरनेट’ को ‘इण्टरनेट’ लिखता हूँ।)
·        जहाँ पंचमाक्षर अपने वर्ग के चार अक्षरों के अलावे किसी और अक्षर के साथ संयुक्त हो रहा हो, वहाँ बिन्दी के प्रयोग की अनुमति नहीं है। जैसे- वाङ्मय, अन्य, उन्मुख इत्यादि।
·        पंचम वर्ण जब दुबारा आये, तब भी बिन्दी का प्रयोग नहीं होता- अन्न, सम्मेलन, सम्मति इत्यादि।  

बुधवार, 5 जनवरी 2011

“क्षैतन्जी”

बचपन में जैसे ही हम कभी छींकते थे, आस-पास कहीं खड़ी हमारी बुआ या चाची या माँ बोल पड़ती थीं- क्षैतन्जी!
हम बच्चे कुछ समझते नहीं थे.
कुछ बड़े होने पर हमने पूछना शुरु किया- यह क्षैतन्जीक्या है?
जवाब मिलता- कहना चाहिए.
कुछ और बड़े होने पर हमने बहस करना शुरु कर दिया- क्यों कहना चाहिए? नहीं कहने से क्या होगा?
हमारी चाची या बुआ या माँ के पास इनका कोई जवाब नहीं होता था.
***
वर्षों बीत जाते हैं.
हम कॉलेज में हैं.
हिन्दी के प्राध्यापक ‘अपभ्रंश’ के बारे में बता रहे हैं.
वे दो उदाहरण देते हैं- 1. आनामासिधन और 2. क्षैतन्जी
बच्चों का हाथ पकड़कर पहली बार स्लेट पर जो शब्द लिखवा जाता है, वह है- आनामासिधन. (हालाँकि हमारे इलाके में इसका प्रचलन नहीं है. वैसे, बँगला में इस अनुष्ठान को ‘हाते-खड़ी’ (हाथ में खड़िया) कहते हैं.)
हिन्दी के प्राध्यापक बताते हैं कि ऊँ नमः सिद्धम का अपभ्रंश है- आनामासिधन.
इसी प्रकार, शतम् जीवः का अपभ्रंश है- क्षैतन्जी.
हमें एक प्रश्न का उत्तर मिल जाता है कि क्षैतन्जीवास्तव में एक आशीर्वाद है- सौ साल जीओ.
मगर दूसरा प्रश्न अब भी अनुत्तरित है, कि छींकने के बाद ही यह आशीर्वाद क्यों?
***
फिर वर्षों बीत जाते हैं.
कुछ रोज पहले अखबार में एक ‘बॉक्स’ समाचार पर नजर पड़ती है, जिसका आशय है- छींकते वक्त क्षण भर (Fraction of Second) के लिए हमारे हृदय की धड़कन रुक जाती है!
दूसरे प्रश्न का भी उत्तर मिल गया.
जब भी कोई- खासकर एक बच्चा- छींकता है, तो वास्तव में वह मरकर जीता है! इसलिए घर के बड़ों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता था- सौ साल जीओ बच्चे, तुम अभी-अभी मृत्यु के मुँह से लौट कर आये हो.
*** *** ***  

शनिवार, 27 नवंबर 2010

“सुदामा और कृष्ण”- आज भी...

दीवाली में घर- यानि बरहरवा- गया हुआ था
कोलकाता से कैलाश (पटवारी) का फोन आता है कि (बरहरवा में ही) कुष्माकर (तिवारी) अपना घर बना रहा है, एक बार जाकर देख लेना कि सब सही तो है (वास्तुशास्त्र के हिसाब से)।
अगले रोज कुष्माकर भी बाजार में अपने बच्चों को पटाखे दिलवाते हुए मिल गया। उसने भी यही कहा।
कैलाश और कुष्माकर दोनों यूँ तो मेरे छोटे भाई की मित्र मण्डली के हैं, मगर मेरे भी दोस्त हैं।
दीवाली के बाद वाले रोज कुष्माकर मोटर साइकिल पर आया। मैं बगल के रूपश्री स्टूडियो में बैठा था।
दोनों घर देखने गये। शानदार दोमंजिला मकान बनकर तैयार था- प्लास्तर का काम चल रहा था। घर वास्तु के हिसाब से ही बना था।
चलते समय मैंने कहा- तुम इसमें काफी सुखी रहोगे और खूब तरक्की करोगे।  
***
कुष्माकर भाजपा कार्यकर्ता है। आय का कोई जरिया नहीं है। समाज का, और अपने दोस्तों का प्रियपात्र है, इसलिए गुजारा चल रहा है। हालाँकि उसका ‘क्रीज’ वाला पहनावा देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि उसकी आर्थिक स्थिति खराब है।
कुछ समय पहले वह बीस सूत्री कार्यक्रम का अध्यक्ष था; अभी भी सांसद प्रतिनिधि है, मगर कभी उसने ‘ऊपरी कमाई’ करने की कोशिश नहीं की। राजनीति से जुड़े होने के कारण जरूरतमन्दों की मदद ही करता है। उसका स्वभाव ही ऐसा नहीं है कि वह ‘दो-नम्बरी’ कमाई में संलग्न हो सके।
अब तक टालियों की छत वाली झोपड़ीनुमा घर में वह रह रहा था।
इसी होली में तो हमलोग जब ‘जुगाड़’ में घूम रहे थे, उसने अपने टाली वाले घर के सामने ‘जुगाड़’ रुकवाया था और हमलोगों को घर से लाकर पूआ, दहीबड़ा खिलाया था।
अचानक वह इतना विशाल और शानदार दोमंजिला मकान कैसे बनवा रहा है- मैंने जानना नहीं चाहा।
***  
रात मैंने कैलाश को फोन लगाया और बताया कि कुष्माकर का मकान एकदम सही बन रहा है।
तब वह राज खोलता है कि कुष्माकर को मकान बनवाकर वही दे रहा है। मकान शुरु करने से पहले पाकुड़ के वास्तुशास्त्री से नक्शा बनवाने की सलाह भी उसी ने दी थी।
वह एक और राज खोलता है कि पन्द्रह साल पहले कुष्माकर को पार्टी बदलने के लिए लाखों रूपये का ऑफर मिला था, मगर उसने पार्टी नहीं बदली थी।
***
मैं नहीं जानता, आप इस घटनाक्रम को क्या कहेंगे।
मगर मेरे लिए तो सुदामा और कृष्ण की कहानी हमारे बरहरवा में फिर से- इस कलियुग में- दुहरायी जा रही है।
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(मैं नहीं जानता, मुझे यह लिखना चाहिए था या नहीं. कभी मौका मिला तो दोनों से पूछ लूँगा.) 

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

“टप्परगाड़ी”

आपके इलाके में इसे कुछ और नाम से पुकारा जाता होगा, मगर हमारे इलाके में इसे टप्परगाड़ी कहते हैं. वैसे, अब इसका प्रचलन नहीं रहा. जी, ठीक समझा आपने- बैलगाड़ी के ऊपर ‘घर-जैसा’ एक ढाँचा कसने के बाद उस बैलगाड़ी को ही ‘टप्परगाड़ी’ कहा जा रहा है. आपने इसकी सवारी चाहे की हो या न की हो, मगर फिल्मों में तो इसे जरूर देखा होगा. कई सदाबहार गानों में ये ‘टप्पर’ वाली बैलगाड़ियाँ नजर आती हैं.

पहले साल में एक बार तो हमें इसे टप्परगाड़ी की सवारी का आनन्द मिल ही जाया करता था. चौलिया (हमारा पैतृक गाँव) से टप्परगाड़ी आती थी और हम सारा परिवार उसमें बैठकर चौलिया जाते थे- बहाना होता था- भूँईपाड़ा (भीमपाड़ा) मेला देखना. जो बच्चे बड़े होते थे (जैसे, मेरी बड़ी दोनों दीदी, बाद में भैया), उन्हें बैलगाड़ी के पीछे टप्पर से बाहर बैठने की अनुमति मिल जाया करती थी और वे पैर झुलाते हुए सफर के साथ-साथ दृश्यों का भी आनन्द उठाते थे. मुझे यह अनुमति नहीं मिली.

दो किलोमीटर पक्की सड़क (फरक्का रोड) पर चलने के बाद टप्परगाड़ी रोड छोड़कर खेतों में उतरती थी.(हमारे इलाके में अमूमन साल में एक ही बार खेती होती है- धान की. धान कटने के बाद खेत खाली पड़े रहते हैं. रबी फसल बहुत कम लोग लगाते हैं, जिनके पास सिंचाई के साधन हैं. आप सोचेंगे कि पूर्व के किसान ही आलसी होते हैं और पश्चिम (पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उ.प्र.) के मेहनती. मैं कहूँगा कि नेहरूजी ने आजादी के बाद 99.999 प्रतिशत नहरें उन्हीं इलाकों में बनवायी, इसलिए यह भेदभाव है! खैर,)

खेतों में कुछ दूर चलने के बाद हमारी टप्परगाड़ी एक ऊँचे रेल पुल के नीचे से गुजरती थी. इस पुल को पता नहीं क्यों ‘केंचुआ पुल’ कहते हैं. कभी-कभी यहाँ घुटना भर पानी जमा रहता था.(इस तरह के बड़े-छोटे चालीस-पचास रेल पुल किऊल जंक्शन से हावड़ा जंक्शन के बीच बने हैं, जिनका निर्माण काल 1890 के आस-पास है. सौ से अधिक वर्ष पुराने ये पुल अब तक मजबूत ही हैं. जो दो चार कमजोर पड़ गये हैं, उनका पुनर्निर्माण हो रहा है. इन पुलों को देखकर अहसास होता है कि अंग्रेज इंजीनियरों ने रेल-लाईन बिछाते समय बरसाती पानी के बहाव का कितना गहन अध्ययन किया था! इसके मुकाबले हमारे इंजीनियरों ने कुछ वर्ष पहले ललमटिया के कोयला खान से फरक्का एन.टी.पी.सी. तक जो रेल लाईन बिछाई, उसमें इस बात का ध्यान नहीं रखा; फलतः इन इलाकों में अब बरसात में छोटी-मोटी बाढ़ आने लगी है.)

चौलिया पहुँच कर लोगों से मिलना-जुलना होता था और फिर हमलोग टप्परगाड़ी में ही पड़ोसी गाँव भीमपाड़ा के मेले में जाते थे. आगे चलकर जुए के कारण मेला बदनाम हो गया और हमारा ‘टप्परगाड़ी’ का सफर बन्द हो गया. ये ’70 के आस-पास की बातें हैं.
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थोड़ी देर के लिए विषयान्तर.

वर्षों बाद ‘98 में हम अपने तीन महीने के ‘बाबू’ को लेकर चौलिया आते हैं. मेरी (फरक्का वाली) छोटी दीदी और (चिंचुँड़ा वाली) चचेरी बहन भी साथ है. चौलिया वाली चाची तीन महीने के हृष्ट-पुष्ट बाबू को देख खुश होती है, मगर पूछती है- इसकी आँखों में काजल क्यों नही है? अंशु मासूमियत से कहती है- अस्पताल (जालन्धर सैन्य अस्पताल) की डॉक्टरों-नर्सों ने काजल लगाने से मना किया है. तुरंत पड़ोसी घर से काजल आता है और बाबू की आँखों में सुन्दर से काजल डाल दिये जाते हैं.

चाची बाबू की खूब मालिश करती है और फिर हवा में उछालती है. हर उछाल के साथ बाबू किलकारियाँ भरता है. चाची कहती है- तुम्हारे बेटे को डर नहीं है रे.

अगली सुबह जब हम लौटने के लिए तैयार होते हैं, तब पास में ही रहने वाले एक दादाजी कहते हैं- पहली बार बहू आयी है, स्टेशन तक पैदल जायेगी? ठहरो, अभी टप्पर कसवाता हूँ.

बैलगाड़ी पर टप्पर कसा जाता है. मेरी दोनों बहनों के लिए तो यह नया कुछ नहीं है, मगर मेरी पत्नी मेरठवासिनी अंशु के लिए बैलगाड़ी/टप्परगाड़ी में बैठने का यह पहला अवसर है. बैलों की सुमधुर घण्टियों के साथ टप्परगाड़ी में हिचकोले खाते हुए हमलोग ‘लिंक केबिन हॉल्ट’ तक आते हैं और फिर ट्रेन पकड़ते हैं.
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अब चौलिया में यदा-कदा बाढ़ आने लगी है. बाढ़ का कारण ऊपर बताया जा चुका है. फरक्का बाँध का निर्माण भी मानो- बरसात में भारत के गाँवों को डुबोते हुए बाँगलादेश के गाँवों को बचाने के लिए ही किया गया है. सात-आठ वर्ष पहले चौलिया में तीन दिनों तक कमर भर पानी घुसा रहा. ज्यादातर घर ढह गये. बहुत नुक्सान हुआ. मेरी चाची और उन दादाजी के घर भी ढह गये थे. वह ‘टप्पर’, जो दादाजी के घर के बाहरी दीवार पर टँगा रहता था- मिट्टी की दीवार के साथ गिरकर दबकर और पानी में डूबे रहकर नष्ट हो गया. दो-चार साल पहले उन दादाजी का देहान्त हो गया.

अब चौलिया में मुश्किल से दो-चार टप्पर बचे होंगे तो बचे होंगे. वे भी दीवारों में ही टँगे होंगे. अब एक तो बहू-बेटियों के लिए पर्दे की उतनी जरूरत नहीं है, दूसरे, सड़कें पक्की हो गयी हैं और उनपर फर्राटे भरते हुए टेम्पो अब गाँव-गाँव पहुँचने लगे  हैं.

तरक्की हो रही है.

भूल जाना होगा बैलों के गले की सुमधुर घण्टियाँ... कच्ची सड़कों पर से खुरों से उड़ती धूल... गाड़ीवान की हो-हो...