चेतावनी: यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, किसी को सलाह देने का इरादा मेरा बिलकुल नहीं है। स्वास्थ्य का मामला है, कृपया सलाह योग्य चिकित्सक से ही लें।
माँ-पिताजी नाती-पोतों के साथ: एक पुरानी तस्वीर |
मेरे पिताजी और दादाजी दोनों होम्योपैथ चिकित्सक रहे थे।
वर्षों पहले एक बार पिताजी ने मुझसे कहा था कि पैंतीस-चालीस की उम्र के बाद ‘फेरम फॉस,’ ‘कैलक्रिया फॉस’ और ‘मैग फॉस’ की गोलियों की शीशियाँ घर में हमेशा रखना और बीच-बीच में ऐसे ही चार-चार गोलियाँ खा लिया करना।
पिताजी ने जब यह बात बतायी थी, तब मेरी उम्र बीस-बाईस रही होगी, तो स्वाभाविक रूप से मैंने उनकी इस सलाह को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया— यानि मैं भूल गया। दूसरी बात, कसरत और योगाभ्यास— अनियमित ही सही— की मेरी आदत बचपन से बनी हुई थी। ऊपर से, भारतीय वायु सेना में कमान की तैराकी टीम में भी मैं शामिल हो गया था। उस दौरान (1987 से 1995 तक) बहुत कसरत और बहुत तैराकी करता था मैं। तो मेरे मन में यही था कि मुझे कभी इस तरह की गोलियों की जरूरत नहीं पड़ेगी।
जब मेरी उम्र पैंतालीस के करीब हुई, तब एकाएक मैंने महसूस किया कि घुटनों में हल्का दर्द रहने लगा है— खासकर सुबह के समय। एक बार राजन जी से बातचीत के क्रम में मैंने इसका जिक्र किया। उन्होंने तुरन्त कहा, “कैल्शियम कम हो गया है, कैल्शियम की गोली लो।”
मुझे उनकी बात कुछ सही लगी। घर आकर नेट पर सर्च किया। पता चला— युवा उम्र तक शरीर ठीक भोजन से कैल्शियम लेता रहता है, लेकिन एक उम्र के बाद यह प्रक्रिया सुस्त पड़ जाती है, तब शरीर सीधे हड्डियों से कैल्शियम लेने लगता है। परिणाम— घुटनों में दर्द।
मुझे अचानक पिताजी की बात याद आ गयी कि क्यों उन्होंने कहा था कि पैंतीस-चालीस की उम्र के बाद ‘कैलक्रिया फॉस’ की दो-चार गोलियाँ यूँ ही खाते रहना!
इसके कुछ दिनों बाद टीवी पर एक आयुर्वेदाचार्य को यह बताते हुए सुना कि घुटनों में अकड़न एवं दर्द का कारण कैल्शियम की कमी तो होती ही है, मैग्निशियम की भी कमी होती है। तब मुझे समझ में आया कि पिताजी ने साथ में ‘मैग फॉस’ की गोलियाँ भी साथ में लेते रहने के लिए क्यों कहा था।
जब अभिमन्यु से (फोन पर) इन बातों का जिक्र हुआ, तो उसने बताया कि मैग्निशियम शरीर के अन्दर बनता ही नहीं है, इसे हमेशा बाहर से ही लिया जाता है। यानि यह शाक-सब्जियों में होता होगा और मैं बचपन से ही शाक-सब्जी बहुत कम खाता था— बस नाम के लिए खाता था।
जो भी हो, ‘फेरम फॉस’ वाला मामला साफ हुआ एक जमाने के बाद— इसी साल जनवरी में। स्वामी विवेकानन्द जयन्ती के दिन मैं श्रीमतीजी के साथ रक्तदान शिविर में गया था। (1997-98 के बाद से रक्तदान नहीं किया था, इस बार सोचा कि किया जाय।) शिविर में पता चला कि जिनका HB 12 से कम होगा (जहाँ तक याद है, 12 ही कहा गया था), उनका रक्त नहीं लिया जायेगा। मेरा तो 12 से अधिक हो गया— शायद 12.3, लेकिन श्रीमतीजी का 12 से नीचे रह गया— शायद 11.8। तो वे रक्तदान नहीं कर सकीं, मैंने किया। अब जाकर समझ में आया कि पिताजी ने ‘कैल’ और ‘मैग’ के साथ-साथ ‘फेरम फॉस’ खाते रहने की सलाह क्यों दी थी।
अन्त में दो बातें। घुटनों का दर्द— जहाँ तक याद है— तीन महीनों में ठीक हो गया था। इस दौरान सुबह-शाम मैं ‘कैलक्रिया फॉस’ की चार-चार गोलियाँ नियमित रूप से खाता रहा था।
दूसरी बात, तीन शीशियाँ सेल्फ पर सदा रखी रहती हैं। जब कभी इनकी तरफ ध्यान जाता है— हफ्ते, दो हफ्ते में एक दिन— किसी एक शीशी से चार गोलियाँ निकालकर हम खा लिया करते हैं।
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रोचक बात है। अक्सर ऐसा ही होता है। माँ बाप हमें निर्देश देते हैं लेकिन वह चीज निर्देश तक ही सीमित हो जाती है। मेरी बचपन से आदत रही है कि मुझे कोई निर्देश मिलता है क्यों जरूर पूछता हूँ। इसके कारण कई बार ये भी सुनने को मिलता है कि तुम्हें बात करने की तमीज नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि कोई निर्देश दो तो कमसे कम एक बार कारण अवश्य बताओ ताकि व्यक्ति को उस निर्देश की वैल्यू पता चले। इसी के चलते अभी भी मेरे अंदर ये आदत है कि मैं किसी को निर्देश देता हूँ तो उसका कारण उसे अवश्य बताता हूँ ताकि उसे पता रहे कि उसे जो कहने के लिए कहा जा रहा है वो क्यों कहा जा रहा है।
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