बीते नवम्बर महीने की बात है। उसी समय लिख देते, तो बढ़िया रहता। कुछ-कुछ भूलने भी लगे हैं।
हमारे इलाके में (मालदा डिविजन, ईस्टर्न रेलवे) सवारी रेलगाड़ियाँ अलमस्त तरीके से चलती हैं। लॉकडाउन के बाद से कुछ ज्यादा ही अलमस्त हो गयी हैं- वैसे, हाल-फिलहाल की स्थिति नहीं पता।
नवम्बर में अंशु को (पड़ोस की एक महिला के साथ) साहेबगंज जाना था 'गायत्री परिवार' के एक शिविर में भाग लेने और हमें उससे भी आगे मिर्जाचौकी जाना था- 'क्रीम' लेने।
क्रीम वाली बात को थोड़ा स्पष्ट किया जाय। 2014-15 में हम नियमित रूप से मिर्जाचौकी जाया करते थे नौकरी के सिलसिले में। वहाँ एक नाश्ता दूकान में मेरी साइकिल खड़ी रहती थी, उससे दस किलोमीटर दूर भगैया जाया करते थे। वहीं की शाखा में मेरी पोस्टिंग थी तब। जीप, बस अक्सर जाम में फँस जाती थी और खूब गुस्सा आता था, इसलिए साइकिल की व्यवस्था कर ली थी हमने। पत्थर लदे ट्रकों की भयंकर आवाजाही है उस इलाके में। खैर, तो प्लेटफार्म के किनारे एक शम्भू यादव जी दूध से क्रीम निकालने का काम करते थे- अब भी करते हैं। उनसे हम दो-चार किलो क्रीम ले आया करते थे, फिर घर में उसी क्रीम से घी बनता था।
जब मेरा स्थानान्तरण मेरे गृहनगर में हो गया, तब भी बीच-बीच में जाया करते थे क्रीम लाने। फिर ऐसा हुआ कि शम्भू यादव का जो आदमी क्रीम लेकर ट्रेन से पाकुड़ जाया करता था, उसी से लेने लगे- फोन पर पहले सम्पर्क कर लेते थे। फिर आया मनहूस लॉकडाउन, सब कुछ ठप्प हो गया। इधर-उधर से एक-दो बार घी लेकर देखा, पसन्द नहीं आया। ब्राण्डेड कम्पनी तक के घी में धोखाधड़ी थी- सिर्फ ऊपर-ऊपर बढ़िया घी था, नीचे मिलावटी। फिर फोन किया शम्भू यादव जी को, पता चला, ट्रेनों की दुर्गति के कारण अब उनका आदमी पाकुड़ नहीं जाता, इसलिए हमें ही मिर्जाचौकी जाना होगा। ...इस प्रकार, मेरा मिर्जाचौकी जाना हो रहा था।
जिस ट्रेन को सुबह साढ़े नौ बजे आना था, वह आयी ग्यारह बजे के बाद। उसे आते ही वापसी की यात्रा करनी थी, पर वह खड़ी रही कोई डेढ़ घण्टे तक। 70 किलोमीटर के सफर को उस ट्रेन ने तय किया कोई तीन घण्टों में। यानि शाम चार बजे के आस-पास हम शम्भू यादव जी सामने थे। वे बोले, "खाना हुआ है?" वे समझ गये थे कि मेरा दोपहर का खाना छूट ही गया होगा। हमने कहा, "नहीं।" वे बोले, "बगल में लिट्टी बन रही होगी, बढ़िया लिट्टी बनती है- आग में सेंकी हुई, जाकर खा लीजिए।"
क्रीम लेकर हम बगल में चले गये। लिट्टी-चोखा खाने लगे। बता दें कि मिर्जाचौकी झारखण्ड का अन्तिम स्टेशन है, इसके बाद बिहार शुरू हो जाता है, इसलिए यहाँ की संस्कृति बिहार-जैसी ही है। मेरे बगल में बैठे सज्जन ने हमें कहीं दूर का आदमी समझा, जानना चाहा कि मेरा घर कहाँ है? हमने बताया कि हम पास के ही हैं- बरहरवा के।
उन्होंने दो रिश्तेदारों के नाम लिये, जो बरहरवा में हैं, यह भी बताया कि एकबार वे बरहरवा के 'रामनवमी मेले' में गये थे और फिर कहा कि बचपन में वे अपनी माँ की दादी के साथ बरहरवा में "जोगेन डाक्टर" के यहाँ जाते थे दवा लाने। उनकी माँ का दादीघर तालझारी में है।
हमने कहा कि "जोगेन डाक्टर" मेरे दादाजी थे। इस पर और भी कुछ बातें उन्होंने मेरे दादाजी के बारे में बतायीं- कहा, "आपके घर में "गन्धभजिला" नाम की लता हुआ करती थी, मेरी माँ की दादी उनकी पत्तियाँ तोड़कर लाती थीं फिर उनके पकौड़े बनाकर हम लोगों को खिलाती थीं, पेट के इसे अच्छा माना जाता था, लेकिन पीसते समय इन पत्तियों से बदबू आती थी।"
हमें भी "गन्धभजिला" की याद है। जब इनकी पत्तियों को पीसा जाता था, बहुत बदबू फैलती थी। हम बच्चे इसके पकौड़ों को खाना नहीं चाहते थे, पर हमें खाने के लिए कहा जाता था।
एक और बात बतायी उन्होंने कि मेरे दादाजी अपने खेत के चावल दिया करते थे उनकी माँ की दादी को कि ले जाओ, खीर बनाकर खाना। यह मेरे लिए बिलकुल नयी जानकारी थी। अभी तक बहुत-से पुराने लोगों ने हमसे यह कहा कि वे लोग बचपन में मेरे दादाजी के पास आते थे दवा लेने, लेकिन दादाजी घर का चावल भी दे दिया करते थे- ऐसा जिक्र किसी से हमने अब तक नहीं सुना था।
अभी हमलोगों का जो चावल खेतों से आता है, उसमें एक सुगन्धित चावल भी आता है, जिसे हमारे भागीदार लोग "खिस्सापाति" चावल कहते हैं। इस चावल का इस्तेमाल आम तौर पर खीर बनाने में होता है, पर अंशु इसे रोज के खाने में इस्तेमाल करती है। इसलिए खास हमारे लिए यह चावल गाँव से थोड़ी ज्यादा मात्रा में आता है। हमने अंशु से कह रखा था कि इस चावल के आने के बाद मुहल्ले के कुछ घरों में (खासकर, जिनका अपना खेत नहीं है) में थोड़ा-थोड़ा दे दिया करो और कहो कि कभी-कभी खीर और पुलाव बनाकर खाईएगा। इसके अलावे, आषाढ़ पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा के दिन यह चावल हम बिन्दुवासिनी पहाड़ में दे आते हैं- खिचड़ी या/और खीर बनाने के लिए। उन दो दिनों यही प्रसाद होता है। इस बार भी बाकायदे अंशु ने चावल कुछ घरों में दिये हैं। सरस्वती पूजा के विसर्जन वाले दिन खिचड़ी बनाने के लिए भी यह चावल दिया गया। मेरा कहना था कि इस तरह थोड़ा-बहुत चावल बाँटने से चावल कभी कम नहीं पड़ेगा, उल्टे "बरकत" होगी। उस दिन मिर्जाचौकी में उन सज्जन के मुँह से दादाजी द्वारा अपने मरीजों को घर का चावल दिये जाने की बात सुनकर हमें समझ में आया कि मेरे स्वभाव में यह धारणा कहाँ से आयी!
खैर, थोड़ा समय इधर-उधर बिताकर, जिस नाश्ता दूकान में साइकिल रखते थे, उससे भेंट करके जब हम वापस प्लेटफार्म पर आये- वापसी की ट्रेन पकड़ने के लिए, तब रात हो गयी थी। प्लेटफार्म पर बैठे एक सज्जन ने बँगला में टोका, "और चल दिये बरहरवा?" हमने 'हाँ' में जवाब दिया और रूककर पूछा कि क्या आप हमें पहचानते हैं? वे बोले, "अरे अभी तो शाम को बातचीत कर रहे थे लिट्टी खाते समय।" ये वही सज्जन थे, अभी ट्रैक-सूट में थे। वे साथ हो लिए। ट्रेन में देर थी। एक लम्बी कुर्सी पर बैठकर वे अपने बारे में बताने लगे।
दो साल पहले वे रेलवे से रिटायर हुए थे, यहीं पैतृक जमीन पर 2200 वर्गफीट का (शायद इतना ही बताया था उन्होंने) दोमंजिला मकान बनवाया था लाखों खर्च करके, आठ-नौ लाख रुपये (शायद इतना ही कहा था उन्होंने) देकर बेटे का एजुकेशन लोन चुकाया था और इस प्रकार, रिटायरमेण्ट में मिले पैसे खर्च हो गये थे। अब गुजारा पेन्शन से हो रहा था।
फिर वे मोबाइल में बेटे की तस्वीरें दिखाने लगे- स्मार्ट युवक था। कई तस्वीरें दिखायीं उन्होंने- यह जब UNO में था, यह जब इजरायल में नेशनल सिक्युरिटी की पढ़ाई कर रहा था, यह दिल्ली में NSO के अपने ऑफिस में...। बताया कि इसकी माँ इस पढ़ाई को नहीं समझ सकी थी, जबकि वे प्रिंसिपल हैं- पाकुड़ में, उन्होंने समझा और बेटे का हौसला बढ़ाया। इसी पढ़ाई के लिए एजुकेशन लोन लेना पड़ा था।
हमने मन में सोचा कि कितने भाग्यशाली व्यक्ति हैं ये! बेटा इतनी अच्छी पोजीशन में है, पिता का नाम रोशन कर रहा है। हमने प्रशंसा करते हुए कहा कि बहुत अच्छा लड़का है।
वे पल भर चुप रहे, फिर आह भरकर बोले, "क्या फायदा... आज दो साल से बेटे से बातचीत बन्द है... कोई सम्बन्ध नहीं रखता हमसे... "
मेरा चौंकना स्वाभाविक था, "यह क्या बात हुई?"
उनका कहना था, "दो साल पहले जब रिटायर हुए, तो अपनी पैतृक जमीन पर बसने का फैसला किये। पत्नी से झगड़ा हो गया। वे पाकुड़ की हैं, बड़े घर कीं, बढ़िया सरकारी नौकरी है और वे मुझे पाकुड़ में ही बसाना चाह रही थीं। बेटा भी माँ की तरफ हो गया और उन दोनों से सम्बन्ध खत्म हो गया।"
"फिर भी आपने बेटे का एजुकेशन लोन चुकाया... जबकि वह अच्छी नौकरी करने लगा था- ?" मेरा सवाल था।
"पिता का फर्ज निभाया हमने। वादा भी कर रखा था।" निराश और हताश स्वर में वे बोले, "अब तबियत भी ठीक नहीं रहती, दिल की बीमारी हो गयी है।"
मेरे पास सही में कहने के लिए कुछ नहीं था। चुपचाप बैठे रहे हम।
ट्रेन आने की घोषणा हुई, हमने कहा कि मिलकर अच्छा लगा, फिर कभी आने पर भेंट करेंगे।
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