यह पुल्लिंग में "भक्का" है और स्त्रीलिंग में "धुक्की।" आप कुछ भी कहने के लिए स्वतंत्र है- "गर्मागर्म भक्का बन रहा है" या "गर्मागर्म धुक्की बन रही है।"
यह चावल के आटे का व्यंजन है, सिर्फ जाड़े में बनाया जाता है- वह भी मुँह-अन्धेरे, यानि सुबह-सुबह। इसे भाप से पकाया जाता है। यह हमारे इलाके (झारखण्ड) के अर्द्धशहरी, कस्बाई और ग्रामीण इलाकों के नुक्कड़ पर बनता है। बिहार के लिट्टी-चोखा को तो फिर भी सूटेड-बूटेड लोग सरे-आम खाने लगे हैं, पर इसे ऊँचे तबके वाले हेय दृष्टि से देखते हैं। सिर्फ आम लोग ही इसे खाते हैं, या फिर आम बच्चे। (जो जाड़ों में सुबह जल्दी जागते नहीं हैं, उनकी बात अलग है- वे तो इसे देख भी नहीं सकते!)
चावल का आटा जरा मोटा पीसा हुआ होता है, उसमें हल्का-सा नमक भी मिला होता है। पकाने से पहले थोड़ा-सा गुड़ इसमें डाला जाता है। पहले शौकीन लोग दो-एक पेड़ा खरीद लाते थे और बनाने वाला गुड़ के स्थान पर उन पेड़ों को तोड़कर डाल दिया करता था। जब गर्मागर्म भक्का या धुक्की हथेली पर धरी जाती है, तो इसमें से गर्मागर्म भाप निकल रही होती है। ठण्डा होने पर खाने पर मजा नहीं आता।
भाप से पकाने का तरीका आप विडियो में देखकर समझ सकते हैं- एक बर्तन है, जिसमें पानी लगातार उबल रहा है; बर्तन का मुँह मिट्टी की प्लेट से बन्द (sealed) है; प्लेट में एक छेद है, जिससे भाप निकल रही है।
शौकीन लोग चाहें, तो इसे घर में बना सकते हैं- हो सकता है, बच्चों को पसन्द आ ही जाय!
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जयदीप जी सादर प्रणाम, आपका ब्लॉग पढ़कर अच्छा लगा, अब चांदी पहाड़ पढ़ने की इच्छा है, फिर मुलाकात होगी
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