1995 के जिस दिन मैं मेरठ शहर पहुँचा था, उस दिन काका हाथरसी का देहावसान हुआ था। यानि वह 18 सितम्बर का दिन था- आज ही का दिन। हाथरस मेरठ से बहुत दूर नहीं है। इसलिए मेरठ शहर में भी काका के देहवसान की चर्चा फैली हुई थी। जिक्र हो रहा था कि उनकी शवयात्रा धूमधाम से निकलेगी। जी हाँ, धूमधाम से। यह काका हाथरसी की इच्छा थी कि उनकी शवयात्रा में लोग ठहाके और कहकहे लगाते हुए चलें। काका हाथरसी की हास्य-कविताएं उन दिनों बहुत लोकप्रिय हुआ करती थीं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान-जैसी पत्रिकाओं के होली विशेषांक में उनकी रचनाएं जरूर हुआ करती थीं। मैंने बचपन में 'हास्य कवि सम्मेलन' नामक एक पुस्तक पढ़ी थी उनकी। एकबार एक पत्रिका में सभी नामी-गिरामी हास्य कवियों की पत्नियों का साक्षात्कार छपा था, जिसमें 'काकी' का कथन सबसे दमदार था- 'बीस वर्षों से इन्हें बर्दाश्त कर रही हूँ।' दरअसल, काका अक्सर कविताओं में 'काकी' को भी शामिल कर दिया करते थे- जैसे, "प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काकी को धर दे... वीणावादिनी वर दे...।" अभी फेसबुक की एक पोस्ट से पता चला कि उनका जन्म भी 18 सितम्बर को ही हुआ था- 1906 में।
तो जब आज 18 सितम्बर है और आज काका के बहाने मेरे मेरठ जाने की बात याद आ गयी है, तो उस पुरानी याद को ताजा कर ही लूँ।
***
मैं आधी रात में मेरठ पहुँच गया था। स्टेशन के बाहर एक लॉज में सोया। सुबह घण्टाघर आकर नाश्ता किया और टेम्पोवाले से बोला कि शास्त्रीनगर जाना है। उसने बैठने कहा, मैं बैठ गया। और भी बहुत से लोग बैठे थे टेम्पो में। कुछ देर बाद एक वीरान-से इलाके में टेम्पो रोककर ड्राइवर ने मुझसे कहा, "लो जी, आ गया शताब्दी नगर।"
शताब्दी नगर? मुझे तो शास्त्री नगर जाना था! खैर, सड़क के दूसरी तरफ जाकर एक दूसरा टेम्पो पकड़ कर वापस घण्टाघर लौटा। अब ठीक से शास्त्रीनगर वाला टेम्पो पकड़ा। शास्त्रीनगर उतर कर हमने दुकानों पर पूछ-ताछ शुरू की कि फलां मकान नम्बर कहाँ मिलेगा? पता चला, शास्त्रीनगर बहुत बड़ा रिहायशी इलाका है और बिना 'सेक्टर नम्बर' बताये मकान का पता नहीं चलेगा। मैंने कहा कि मैं तो इसी पते पर पत्र लिखता हूँ। खैर, दो-तीन दुकानों से एक-जैसा जवाब पाने के बाद मैंने पूछा कि पोस्ट ऑफिस किधर है? मेडिकल के कैम्पस में पोस्ट ऑफिस था। वहाँ जाकर पोस्टमैन से पूछने पर उन्होंने कहा, "पता ठीक है- सेक्टर 8 में फलां नम्बर का मकान।" दरअसल, तीन अंकों के मकान नम्बर के बाद 'बटे' के साथ 8 भी लिखा हुआ पते में। किसी दुकानदार का ध्यान इस पर नहीं जा रहा था। मैं तो खैर, जानता ही नहीं था इन नम्बरों के बारे में।
अब एक रिक्शेवाला मुझे उस सड़क पर ले गया, जिसकी बाँयी तरफ सेक्टर- 8 था और दाहिनी तरफ सेक्टर- 9। रिक्शेवाला मुझे कुछ ज्यादा ही आगे तक ले गया और उतार कर बोला, "दाहिनी तरफ सेक्टर- 8 है।" मैं उस कॉलोनी में जाकर वांछित मकान नम्बर खोजने लगा। एक लड़के ने मुझे बताया कि मैं सेक्टर- 9 में हूँ, सेक्टर- 8 सड़क की बाँयी तरफ है। वह अपनी साइकिल पर बैठा कर मुझे सही जगह ले आया और बोला, "आगे तीन-चार घरों के बाद ही वह घर है।"
सही मकान नम्बर के सामने पहुँचा। अन्दर अंशु एक पड़ोसन के साथ गपशप कर रही थी। मैंने कहा कि मैं ग्वालियर से आ रहा हूँ।
"अच्छा, जयदीप जी। शेखर जी नहीं आये?" अंशु ने कहा।
मैं चक्कर में पड़ गया। 8-10 दिनों पहले मैंने अपनी तस्वीर भेज दी थी और लिखा था कि यही 'जयदीप' है और यही 'शेखर' है- दोनों एक ही व्यक्ति का नाम है- 'जयदीप शेखर।' यहाँ मुझे 'जयदीप' समझा जा रहा था। उस समय मैं चुप ही रहा और कहा कि हाँ, मैं जयदीप हूँ। सोचा, बाद में राज खुलनी ही है कि दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं।
हुआ यह था कि खुद अपनी ही शादी की बात करते हुए मुझे अटपटा लगा था, इसलिए 'जनसत्ता' को लिखे पत्र में मैंने यह लिखा था कि मैं 'जयदीप' हूँ और मेरा मित्र 'शेखर' अंशु से विवाह करना चाहता है। यह अगस्त महीने की बात थी। अपने 'जयदीप' नाम के साथ 'शेखर' उपनाम का प्रयोग मैं शुरू कर ही चुका था। जनसत्ता में अंशु की कहानी छपी थी और उस कहानी को पढ़ने के बाद उससे शादी करने का फैसला मैंने पलक झपकते ले लिया था। वैसे, यह कहानी विस्तार से मैं 1987 में भी पढ़ चुका था- जब यह घटना घटी थी। शायद 'मनोहर कहानियाँ' में। तब मैं आवडी (मद्रास) में था, उम्र कम थी। देश में तेजाब से हमले की पहली वारदातों में से एक यह वारदात थी। 'जनसत्ता' ने दिल्ली से मेरे पत्र को मेरठ पहुँचाया था, मेरठ कार्यालय से एक पत्रकार उस पत्र को अंशु के पिताजी तक पहुँचा गया था। उन दिनों प्रभाष जोशी जनसत्ता के सम्पादक हुआ करते थे, समाचार लिखने वाले पत्रकार भी धाकड़ हुआ करते थे और 'जनसत्ता' को हिन्दी का दमदार अखबार माना जाता था।
खैर, घर में पता चला कि अंशु के माता-पिताजी मुरादाबाद गये हुए हैं- अंशु के नानीघर और वे तीन दिनों बाद आयेंगे। इस प्रकार, मैं अपने भावी ससुराल में तीन-चार दिनों तक ठहरा। दोपहर में बबीता और शानू (अंशु की बहन और भाई) भी घर आये।
***
21 सितम्बर के दिन मैं वहीं था। सुबह-सुबह खबर फैली कि गणेशजी दूध पी रहे हैं। लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा मन्दिरों की ओर। दोपहर तक पता चला कि मामला भारत तक सीमित नहीं है, विदेशों तक में गणेशजी दूध पी रहे थे।
हमलोग घर के बाहर ही बैठे हुए थे। दोपहर में डी.ए.वी. स्कूल का एक विद्यार्थी वहाँ से गुजरा। वह दूध पिलाकर आ रहा था। हम लोगों ने कहा कि यह तो अफवाह है, तो वह लगभग नाराज हो गया। उसने कहा कि वह भी विज्ञान का विद्यार्थी है, पर यह सच है। तो उसकी बातों से प्रभावित होकर हमलोग भी गणेशजी को दूध पिलाने गये थे।
तीन दिनों बाद अंशु के माता-पिता आये, हमने 'जयदीप शेखर' के रूप में अपना परिचय दिया। उनके पिता ने मुझे अपने माता-पिता से अनुमति लेने के लिए कहा। मैंने अनुमति ली। पिताजी ने कहा कि शिष्टाचारवश अंशु के पिताजी को एक बार हमारे घर आना चाहिए। वे गये। और इस तरह से अगले साल हमारी शादी हुई।
*****
मेरठ/ससुराल की कुछ पुरानी यादें अल्बम से-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें