'मेरी जीवनयात्रा' अनुवाद के समय एक बँगला शब्द आया था- 'तगि।' तगि से मछली पकड़ने का जिक्र था। हम पहली बार यह जिक्र सुन (पढ़) रहे थे। हमने सोचा, शायद बन्शी का जिक्र हो। बाद में पाया कि बन्शी के लिए अलग से 'छिप' शब्द का इस्तेमाल हुआ था। यानि 'तगि' कुछ और होनी चाहिए।
हमने जयचाँद के भैया को फोन करके पूछा कि तगि क्या है? उन्होंने बताया कि जैसे पतंग के धागे को लपेटने के लिए एक 'लटाई' होती है ('होती है' क्या, 'होती थी', क्योंकि हमारे इलाके में अब न पतंगबाजी रही और न ही कहीं लटाई वगैरह मिलती है। एक जमाने में क्या क्रेज हुआ करता था इसका! एक-से-एक तरह की लटाई मिलती थी। किसी के हाथों में बढ़िया लटाई देखकर पतंगबाजों को लालच और ईर्ष्या हुआ करती थी।) वैसे ही मछली पकड़ने के धागे को लपेटने के लिए भी लकड़ी का एक उपकरण होता है। इसका धागा मोटा होता है, इसमें काँटों का एक गुच्छा होता है। आटे का बड़ा-सा गोला काँटों पर लपेटा जाता है और इसे तालाब या नदी में दूर फेंका जाता है। यह बड़ी मछलियों को पकड़ने के काम आता है।
हमने कहा कि अब शायद यह नहीं मिलती होगी। उन्होंने बताया कि बुधवार हटिये में अभी भी एक बुजुर्ग मछली पकड़ने के सरंजाम बेचते हैं, उनके पास तगि भी रहती है।
कुछ दिनों बाद संयोग से बुधवार के दिन मेरा उस तरफ जाना हुआ। वे दूकान पर बैठे थे। मुझे देखते ही बोले- आज तो हटिया का दिन है, तगि देखने चलना है?
हम उन बुजुर्ग की दूकान पर गये। उन्हें अपने ससुर से यह व्यवसाय विरासत में मिला है। उनके लड़के दूसरे व्यवसायों में हैं। यानि इन बुजुर्ग के बाद यह साप्ताहिक दूकान बन्द हो जायेगी और मछली पकड़ने के अन्यान्य उपकरणों के साथ "तगि" मिलनी/दिखनी भी बन्द हो जायेगी!
हमने एक विडियो बनाया था वहाँ-
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