फिलहाल मैं जिस बँगला रचना का हिन्दी अनुवाद कर रहा हूँ (बल्कि कहना चाहिए कि जिस बँगला रचना को हिन्दी में लिख रहा हूँ), वह हमारे दिगम्बर जेठू (बँगला में जेठू यानि ताऊजी, यह 'ज्येष्ठ' शब्द से बना है) की आत्मकथा है। अफसोस की बात यह है कि हिन्दी में मैं ठीक-ठाक लिख रहा हूँ कि नहीं- यह देखने के लिए वे नहीं रहे। बीते अप्रैल में ही उनका देहावसान हुआ। वे 85 वर्ष के थे। पिताजी के बाल्यमित्र एवं सहपाठी दिलीप साव के वे बड़े भाई थे।
दरअसल हुआ यूँ था कि मेरे दो अनुवादों की उन्होंने बहुत प्रशंसा की थी- 'चाँद का पहाड़' और 'भुवन सोम।' मैं ठीक से नहीं जानता था कि वे रेलवे में थे, या कोल इण्डिया में थे। बाद में जाना कि वे रेलवे में थे, 1994 में रिटायर हुए थे। खैर, उपर्युक्त दोनों अनुवादों के नायक भी रेलवे में थे- भुवन सोम तो खाली बैठते ही बीते दिनों के बारे में सोचने लगते थे। शायद इन्हें पढ़कर ही उन्हें लगा होगा कि क्यों न वे अपनी आत्मकथा-जैसा कुछ लिखें! मुझसे उन्होंने जिक्र किया था कि अँग्रेजी में लिखा जाय, या बँगला में या फिर हिन्दी में। बाद में कुछ सोचकर उन्होंने बँगला में लिखने का फैसला किया और मुझे कहा कि इसे हिन्दी में लिखने की जिम्मेवारी तुम्हारी।
मार्च के अन्तिम सप्ताह में शायद उनकी किताब (मालदह- बँगाल में हमारा पड़ोसी शहर) छपकर आयी। इसी समय वे बीमार भी पड़ गये। (उन दिनों टायफायड फैला हुआ था।) 9 अप्रैल को उन्हें मालदह ले जाने का फैसला शायद हो चुका था बेहतर ईलाज के लिए। 8 अप्रैल की रात जब मैंने घर आकर नहा-धोकर फोन को चार्ज पर लगाया (राजमहल गया था- 'अशोक' के दाह-संस्कार में और वहाँ मेरा फोन बन्द हो गया था), तब देखा कि उनका 16 मिस्ड कॉल था। फोन किया। उन्होंने बुलाया। मैं पहुँचा। उन्होंने किताब की एक प्रति मुझे सौंपी और कहा कि तुम्हें इसे हिन्दी में लिखना है। मैंने सोचा, उन्हें टायफायड हुआ होगा, अगले दो हफ्तों में वे स्वस्थ हो जायेंगे। कुछ दिनों बाद जयचाँद पन्द्रह पन्नों के हिन्दी अनुवाद का प्रिण्ट निकाल कर उनके घर गया- ताकि अनुवाद के "स्तर" पर उनकी प्रतिक्रिया ली जा सके। तब पता चला कि वे तो 9 तारीख से ही मालदह में हैं! कुछ दिनों बाद उन्हें कोलकाता रेफर किया गया और वहाँ से वे वापस नहीं आ सके। वहीं 24 अप्रैल को उन्होंने अन्तिम साँस ले ली।
इस तरह, बहुत-सी बातें हमारे हाथों में नहीं होतीं। अब सोच रहे हैं कि जब हिन्दी अनुवाद पूरा हो जायेगा, तब बँगला और हिन्दी- दोनों रचनाएं डॉ. के.जी. रॉय सर को दिखाऊँगा।
उन्होंने 'कवर' के लिए जैसा मुझे कहा था, मैंने वैसा एक स्केच बना कर दे दिया था और कंचन (उनकी बेटी) से कहा था कि वे खुद आशीष, जयचाँद या खुदीराम भैया से कहकर इस तरह की एक पेण्टिंग बनवा ले। छपी हुई किताब का कवर देखने पर पता चला कि यह खूबसूरत पेण्टिंग तो किसी बच्चे के हाथ की बनी है। पूछने पर पता चला कि जेठू के एक नाती (आदित्य प्रकाश- अगर मैं नाम नहीं भूल रहा हूँ तो। प्रकाशक किताब में उसका नाम देना भूल गया है) ने इसे बनाया है।
पुस्तक का नाम उन्होंने "माय जर्नी (बँगला)" रखने कहा था। ऐसा होने से हिन्दी संस्करण का नाम भी "माय जर्नी (हिन्दी)" रह जाता, पर प्रकाशक ने कुछ सोचकर इसका नाम "आमार यात्रापथ" कर दिया है। इस हिसाब से हिन्दी में अब "मेरी जीवनयात्रा"-जैसा कुछ नाम देना पड़ेगा।
अनुवाद का काम फिलहाल आधा हो चुका है, आधा बाकी है। बीच में कुछ दिन एक दूसरे प्रोजेक्ट में उलझ गया था, इसलिए देर हो गयी।
जेठू की आत्मकथा में बहुत सारे प्रसंग हैं- कुछ भावुक कर देने वाले और कुछ हल्के-फुल्के। यहाँ मैं एक रोचक और हल्के-फुल्के प्रसंग को प्रस्तुत कर रहा हूँ-
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नोआमुण्डी
यहाँ काम के सिलसिले में कई बार आना हुआ। अलग-अलग समय की कुछ घटनाओं को लिपिबद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ।
यहाँ टाटा कम्पनी का लौह-अयस्क का एक खान था। बुकिंग क्लर्क रामबाबू छुट्टियों में घर गये हुए थे, मैं उन्हीं की जगह नियुक्त होकर आया था। स्टेशन से बाजार कोई एक मील दूर था। बाजार जाकर खाना खाकर आना कष्टदायक मामला था। स्टेशन के पास सड़क के किनारे कुछ दुकानें थीं। वहीं एक झोपड़ी-जैसे घर में एक वृद्ध सरदारजी खाना-वाना बनाते थे। पूछने पर बोले- ‘यह ठीक होटल नहीं है। कुछ सरदारजी ट्रक ड्राइवर यहाँ रहते हैं, उन्हीं के लिए खाना पकाता हूँ। वे लोग ही गाँव से मुझे यहाँ ले आये हैं। इसके अलावे, यहाँ दोनों वक्त रोटियाँ बनाता हूँ। रोटी मतलब- पतली रोटियाँ नहीं, बल्कि विभिन्न तरह की शाक-सब्जियों को महीन काटकर उन्हें आटे में गूँधकर डालडे के साथ मोटे-मोटे पराँठे बनाता हूँ। अगर आप दोनों वक्त ऐसे मोटे-मोटे पराँठे खा सकते हैं, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।’
मैंने कहा- ‘ठीक है।’ कोई और चारा तो था नहीं, वहीं खाना शुरू कर दिया।
होली के दिन नहा-धोकर धोती-कुर्ता पहन कर सरदारजी के यहाँ जा रहा था खाना खाने। रास्ते के किनारे मिसिरजी की दुकान थी। पान से लेकर हर तरह की चीजें वहाँ मिलती थीं। कामचलाऊ झोपड़ीनुमा घर था उनका। आधे में दुकान थी और बाकी आधा उनका शयनकक्ष था। चारपाई बिछी रहती थी।
मुझे देखकर बोले- ‘कहाँ चले बाबू, आज होली का दिन है और देह पर कोई रंग नहीं देख रहा हूँ- यह क्या अच्छी बात है?’
मैंने कहा- ‘बात अच्छी हो या बुरी, मैं तो सरदारजी के पास जा रहा हूँ दिन का खाना खाने।’
उनके मन का अभिप्राय मैं समझ नहीं पाया था, इसलिए एक अप्रत्याशित घटना घट गयी।
दुकान के पास ही पाँच-सात ‘रेजा’ (श्रमिक) युवतियाँ खड़ी थीं। रंगों से सराबोर। मिसिरजी ने स्थानीय बोली में जाने उनसे क्या कहा, पलक झपकते उन युवतियों ने मुझे घेरकर चन्दोला बनाकर उठा लिया और चारपाई पर लिटा दिया। इसके बाद सारे शरीर पर गुलाल मल दिया। एक कल्पनातीत काण्ड घट गया यह। कुछ कर तो सकता नहीं था। उठकर झाड़-पोंछ कर तैयार हुआ।
चलने ही वाला था कि फिर मिसिरजी की टिप्पणी सुनायी पड़ी- ‘यह क्या अच्छी बात है बाबू- उन लोगों ने आपको अबीर लगाया और आप उनका मुँह मीठा कराये बिना चले जा रहे हैं?’
आखिरकार मुझे उनकी दुकान से दस रुपये के लड्डू खरीदने पड़े। उस दिन यही होली रही मेरी।
यहाँ मैं निस्संकोच स्वीकार करता हूँ कि थोड़ी झुंझलाहट के बावजूद होली खेलना इतना आनन्ददायक हो सकता है- यह अनुभव मुझे नहीं था। जिस शराफत और शालीनता के साथ उन युवतियों ने मुझे गुलाल मला था, उसे दो शब्दों में अतुलनीय एवं अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है। गुलाल से सराबोर वह दिन फिर कभी लौटकर नहीं आया।
करीब पन्द्रह दिनों तक दोनों बेला पराँठे खाने के बाद वृद्ध सरदारजी ने मुझसे एक प्रश्न किया, बोले- ‘एक बात पूछूँ? बाबू, क्या आप सही में बँगाली हैं?’ उन्होंने मुझे हमेशा धोती-कुर्ते में ही देखा था और बँगला बोलते हुए ही सुना था। इसलिए मैंने पूछा- ‘यह सवाल क्यों?’ उत्तर में वे बोले- ‘मेरे हाथ के पराँठे लगातार पन्द्रह दिनों तक दोनों वक्त खाकर किसी बँगालीबाबू के लिए हजम कर लेना मुश्किल है।’ मैं भला क्या जवाब देता, चुप ही रहा।
उधर खबर मिली कि रामबाबू सपरिवार लौट आये हैं। शाम के बाद उनसे भेंट करने उनके क्वार्टर पर गया। वे खाने पर बैठे थे। बड़ा बेटा उनके साथ रोटी खा रहा था और छोटा बेटा उनके कन्धे पर सवार होने की कोशिश में व्यस्त था। उनकी पत्नी (थोड़ा-सा घूँघट किये थी) गर्मा-गर्म रोटियाँ परोस रही थीं। रामबाबू ने कहा कि अगले दिन वे ड्युटी ज्वाइन करेंगे।
लौट आया, दाम्पत्य-जीवन के एक मधुर पल का साक्षी बनकर।
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पुनश्च (27 जून 2021):
पुस्तक प्रकाशित हो गयी है। इसका ई'बुक संस्करण पोथी डॉट कॉम पर उपलब्ध है-
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आभार।
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण।
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