जीवन वाकई एक नदिया है, जिसके सुख व दुःख दो किनारे हैं।
बीते 27 मार्च को जब हमारे 'उत्सव भवन' में महिलाओं का 'होली मिलन समारोह' मनाया जा रहा था, जिसमें अशोक की पत्नी भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही थी, तब हम, अशोक, राजेश और लालू भैया (बाद में शान्तनु भी) बाहर ही खड़े थे। कितना खुशनुमा माहौल था। कार्यक्रम के अन्त में सभी महिलाएं, लड़कियाँ और बच्चे बाहर आकर गोलगप्पे और चाट खा रहे थे, तब अशोक ही हँसी-मजाक के साथ सबको एक-एक आइस्क्रीम थमा रहा था।
इसके
मात्र दस दिनों के बाद अचानक आधी रात में खबर मिली कि अशोक नहीं रहा! हम सभी सन्न
रह गये। पता चला, चार-छह दिनों से उसकी तबियत खराब थी- शायद जौंडिस का अन्देशा था।
आखिरी दिन (7 अप्रैल) को वह दुर्गापुर (प. बंगाल) में था एक रिश्तेदार के घर। शायद
साँस लेने में तकलीफ होने लगी थी। किसी अस्पताल ने भर्ती नहीं किया शायद और रात
में वह चल बसा।
यह एक त्रासदी थी। अभी बीते दिसम्बर में ही हमने अपनी एक चचेरी बहन को खोया, जिसे हम बहुत मानते थे। और अब एक प्यारा दोस्त! किसी की उम्र नहीं थी जाने की।
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हमारे मुहल्ले और आस-पास के दो-तीन मुहल्लों में करीब दो दर्जन ऐसे नौजवान होंगे, जो अशोक के एक ईशारे पर कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते थे। यहाँ "कुछ भी" से मतलब वाकई "कुछ भी" है। ये नौजवान जान छिड़कते थे उस पर। बहुत कम लोगों में यह गुण होता है कि वह एक तरफ समाज के निचले तबके के लोगों (जिन्हें अँग्रेजी में 'ले-मैन' कहते हैं शायद) के साथ भी घुला-मिला रहे और समाज के पोश वर्ग ('इलीट' क्लास कहते हैं जिसे) के साथ भी तथा पोश माहौल में भी अपना रूतबा और दबदबा बनाये रखे। अशोक में यह गुण था। इसमें उसका छह फुट का कद, गोरा रंग और बातचीत की हाजिरजवाब शैली काम आती थी। व्यापारिक बुद्धि उसकी बहुत तेज थी। नाप-तौल कर, हिसाब-किताब करके वह इन्वेस्ट करता था और जीवन में कभी असफल नहीं हुआ। उसका उदाहरण दिया जाता था।
हमसे ढाई-तीन साल छोटा रहा होगा, उसका बड़ा भाई रंजीत मेरा हमउम्र है, लेकिन हाई स्कूल तक पढ़ाई हमने साथ ही की थी, इस लिहाज से, दोस्ती लंगोटिया वाली ही थी।
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1996 में जब अंशु के साथ हमने शादी करने का फैसला किया था और आनन-फानन में 'बसन्त पंचमी' का दिन तय कर लिया था, तब एक अशोक ही था, जो मेरे साथ मेरठ गया था- हम तब तेजपुर (आसाम) में पोस्टेड थे। ट्रेन से घर आये और घर से अशोक के साथ पहले ग्वालियर पहुँचे- यह मेरी पिछली युनिट थी एयर फोर्स की। योजना के अनुसार हम कई लोग पहले लुधियाना गये- संजीव शर्मा (बेशक, वायुसैनिक) की शादी में। रास्ते में एक हिमाचली वायुसैनिक के साथ अशोक की खूब दोस्ती हो गयी थी- पता नहीं, 'उनियाल' या क्या नाम था उसका। लुधियाना से हम देवगण (ये अब भी एयर फोर्स में ही हैं) के साथ दिल्ली आये। देवगण लोग ऐसे तो अमृतसर के थे, पर हाल ही में दिल्ली में बसे थे। दिल्ली से हम और अशोक मेरठ आये थे।
बेशक, तब तक पिताजी भी मेरठ पहुँच चुके थे, पर मेरी तरफ से शादी का सारा इन्तजाम अशोक ने ही वहाँ सम्भाल लिया था- देवगण बाद में पहुँचे थे। अंशु का- श्रीमतीजी का असली देवर वही रहा।
वही अशोक नहीं रहा। यकीन करना मुश्किल है।
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तस्वीर की पृष्ठभूमि में गंगा किनारे जलती जो चिता है वह अशोक की है, जिसमें उसके छह फीट के लम्बे-चौड़े शरीर को जलाकर राख कर दिया गया। जब उसका बाँया हाथ जलती चिता से ऊपर उठा था, तब हम कुछ समझ नहीं पाये थे। आज ध्यान गया- अरे वह तो बचपन में "बँयहत्था" हुआ करता था- लेफ्टी। क्या पता, आजकल भी वह बाँये हाथ का ही ज्यादा इस्तेमाल करता हो- हमने ध्यान नहीं दिया।
...तो वह बाँये हाथ से "बाय" कर रहा था...
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पुनश्च:
कुछ भूली-बिसरी...
25 जनवरी 1996 |
देवगण और अशोक हमारी शादी में। |
ताजमहल में अशोक और हम। |
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-04-2021) को "आदमी के डसे का नही मन्त्र है" (चर्चा अंक-4033) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सत्य कहूँ तो हम चर्चाकार भी बहुत उदार होते हैं। उनकी पोस्ट का लिंक भी चर्चा में ले लेते हैं, जो कभी चर्चामंच पर झाँकने भी नहीं आते हैं। कमेंट करना तो बहुत दूर की बात है उनके लिए। लेकिन फिर भी उनके लिए तो धन्यवाद बनता ही है निस्वार्थभाव से चर्चा मंच पर टिप्पी करते हैं।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर नमन-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सर, मैं हृदय से लज्जित हूँ। मेरी सफाई यह है कि मेरा ज्यादातर ध्यान और समय दो बँगला लेखकों की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद में खर्च होता है। वे हैं- बनफूल और सत्यजीत रे। बड़ा रचना संसार है इनका। पता नहीं, इस जीवन में कितने हिस्से को हिन्दी में ला पायेंगे। इसलिए बाकी किसी और तरफ मेरा ध्यान कम जाता है। आज कई दिनों बाद जाने क्यों इधर आये, तो टिप्पणियों पर नजर गयी। हम थोड़ा बदलाव लाने की कोशिश करेंगे। हम कृतज्ञता जाहिर करते हैं।
हटाएंहृदयस्पर्शी..!
जवाब देंहटाएंनमन।
पढ़कर सब पुराना याद आ गया
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक सृजन किया है आपने
This is completely showing that the writer is not having any grief about loosing his friend. Its a complete blog about the alligation towards the person ranjit. Writer doesn't have any right to accuse any person in this situation. If writer is not completely aware of the situation what happends then he is just accusing and blaming the person without any proof. Its a completely criminal offense on character sensation.
जवाब देंहटाएंउस हिस्से को हम हटा रहे हैं। भारी गलती हो गयी।
हटाएंThe way you wrote, sorry framed a person by writing पता नहीं, रंजीत उसे सीधे सरकारी अस्पताल क्यों नहीं ले गया, जबकि गम्भीरता की खबर पाकर वह दोपहर को दुर्गापुर पहुँच गया था। this is completely showing your common sense on one hand you are saying ranjit and ashok are own brothers so how could you come to say, sorry accuse his brother on this. I just want to ask you were you present on that situation..? By reading your complete blog i could find how willing you are to accuse and frame ranjit. You are taking about friendship and writing completely against him framing his like he is the only person responsible for his brother sad demise.
जवाब देंहटाएंहम उस हिस्से को हटा रहे हैं। हमसे भारी भूल हुई।
जवाब देंहटाएंGlad to know that you recognised your mistake as well as corrected yourself. Have a great future to you and your family. God bless you. Stay safe and blessed.
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