पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि इस गुफा में देखने लायक कुछ नहीं है।
यह बस एक पहाड़ी गुफा है। यह प्राकृतिक है या मानव-निर्मित- पता नहीं। यह कितना
प्राचीन है- इसकी भी जनकारी नहीं। वैसे, "रोमांच" के लिए हम यह कल्पना
कर सकते हैं कि यह गुफा प्रागैतिहासिक काल की है- जब मनुष्य कन्दराओं में रहा करता
था! (ध्यान रहे, हमारी "राजमहल की पहाड़ियाँ" जुरासिक काल की हैं- डेढ़-दो सौ करोड़
साल पुरानी!)
गुफ-सामने से
|
खास
इसे देखने जाने के लिए कार्यक्रम नहीं बनाया जाना चाहिए। हाँ, अगर आप छुट्टी का
दिन किसी प्राकृतिक स्थल में बिताना चाहते हैं, तो आपके लिए लगभग 20 किलोमीटर का पूरा
यह रास्ता एक उपयुक्त स्थान है। सड़क से गुजरते वक्त आप कंचनगढ़ की इस गुफा की ओर भी
जा सकते हैं।
पूरी बात इस प्रकार है-
लिट्टीपाड़ा चौराहे से आमरापाड़ा की ओर बढ़ते
समय थाना पार करके दाहिने नजर रखिये- एक सड़क दिखायी देगी। उस पर बढ़ जाईये।
"लबदा घाटी" नाम से एक बस्ती आयेगी। बस्ती से निकलने के बाद असली घाटी
आयेगी। खासा चढ़ाव है। यहीं से नयनाभिराम दृश्यों की शुरुआत हो जाती है। खूब
तस्वीरें खींचिये, सेल्फी लीजिये और वीडियो बनाईये।
घाटी
वाली सड़क से गुजरते समय बाँयी तरफ नजर रखिये- बोर्ड लगा होगा- "कंचनगढ़
गुफा"। उल्टा "U" आकार
की सड़क गुफा के लिए जाती है, यानि एक सड़क से अन्दर जाकर आप दूसरी सड़क से लौट सकते हैं-
मुख्य सड़क पर। बिल्कुल पहाड़ से सटकर सड़क खत्म होती है। गाड़ी वहीं छोड़िये और पहाड़
की पगडण्डी पर पैदल चलना शुरु कर दीजिये। करीब सौ मीटर की चढ़ाई के बाद आप गुफा के
सामने होंगे।
गुफा
देखने के बाद फिर आगे बढ़ना शुरु कर दीजिये। दाहिनी ओर बोल्डर की "गार्ड
वाल" है और इस वाल की दूसरी तरफ एक बार फिर नयनाभिराम दृश्यों का सिलसिला
शुरु हो जायेगा। एकबारगी यकीन नहीं होगा कि हम सन्थाल-परगना में राजमहल की
पहाड़ियों की वादियों में हैं! लगेगा- किसी प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पर आ गये हैं! यहाँ
भी खूब फोटोग्राफी कीजिये।
14
किलोमीटर पर "तिराहा" आयेगा- दाहिने "सिमलौंग" है, बाँये-
"कुंजबोना"- एक गाँव। कोयले का खदान देखने का शौक हो, तो सिमलौंग जाया
जा सकता है (बेशक, हम नहीं गये थे)। हम बाँये गये थे- कुंजबोना की ओर। प्राकृतिक
दृश्यों का उपभोग करते हुए आप भी आगे बढ़ते रहिये- सड़क क्या है- बस "साँप" है... "लहरिया" काटते हुए बढ़ते
रहिये। ।
आप पहुँच जायेंगे- "पकलो"। लिट्टीपाड़ा से पकलो तक की यह सड़क हाल ही में बन कर तैयार हुई है- दो साल पहले 10-12 किलोमीटर सड़क निर्माणाधीन थी और हमलोग मुश्किल से इसे पार कर पाये थे। अभी तो फर्राटा भरते हुए सफर किया जा सकता है- इससे पहले कि सड़क खराब होनी शुरु हो- इस पर सफर का लुत्फ उठा लीजिये- हो सके, 2018 का नया साल यहीं मनाईये...
आप पहुँच जायेंगे- "पकलो"। लिट्टीपाड़ा से पकलो तक की यह सड़क हाल ही में बन कर तैयार हुई है- दो साल पहले 10-12 किलोमीटर सड़क निर्माणाधीन थी और हमलोग मुश्किल से इसे पार कर पाये थे। अभी तो फर्राटा भरते हुए सफर किया जा सकता है- इससे पहले कि सड़क खराब होनी शुरु हो- इस पर सफर का लुत्फ उठा लीजिये- हो सके, 2018 का नया साल यहीं मनाईये...
खैर,
पकलो से दाहिने मुड़ियेगा, तो ढाई किलोमीटर बाद आप "वायु सेना स्थल,
सिंगारसी" के मुख्य द्वार पर खुद को खड़ा पायेंगे- चाहे तो जा सकते हैं उस तरफ-
उधर ज्यादातर चढ़ाव है। नहीं तो पकलो से बाँये मुड़ जाईये- इधर ढलान ही ढलान है-
करीब पन्द्रह किलोमीटर बाद आप मुख्य सड़क पर होंगे- दाहिनी तरफ आमरापाड़ा, बाँयी तरफ
लिट्टीपाड़ा- जिधर जाना हो, बढ़ जाईये...
***
नोट- हो सका, तो बाद में कुछ वीडियो के लिंक यहाँ प्रस्तुत करुँगा.
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पुनश्च:
1.
जो बात मेरी समझ में नहीं आ रही है,
वह यह है कि जिस इलाके में यह गुफा है, उसका नाम "कंचनगढ़" क्यों है?
आदिवासी इलाकों में ऐसे नाम तो नहीं होते! क्या इस स्थान का कोई इतिहास है?
2.
प्रसंगवश, बता दूँ कि हमारे इस इलाके
का पुराना नाम "कजंगल" है। पूरब में गंगा-गुमानी नदियों का संगम; पश्चिम
में तेलियागढ़ी का किला; उत्तर में गंगा नदी और दक्षिण में राजमहल पहाड़ियों की तलहटी- इस चौहद्दी के बीच का क्षेत्र "कजंगल" कहलाता था। कायदे से इस पर शोध
नहीं हुआ है।
3.
गुफा में जो बाबा बैठे हुए थे उनसे
हमने यह पूछा था कि इस गुफा के बारे में आप क्या जानते हैं? उनका कहना था धरती माँ
की शुरुआत के समय से यह गुफा है। मैं यह पूछ सकता था कि क्या आप इसे "पिल्चू
बूढ़ी" और "पिल्चू हाड़ाम" का घर मानते हैं, पर पता नहीं क्यों, नहीं
पूछा। पूछना चाहिए था। (मनु-श्रद्धा या आदम-हौव्वा के आदिवासी संस्करण हैं- पिल्चू
बूढ़ी, पिल्चू हाड़ाम।)
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