राजमहल की पहाड़ियों में
जंगली जानवर तो कुछ बचे नहीं, ले-देकर थोड़े-से हाथी बचे हैं। हमारे साहेबगंज जिले में अक्सर कुछ हाथी तालझारी के आस-पास के
गाँवों के पास आ जाते हैं। कुछ बिगड़ैल हाथी फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं, कच्चे
घरों को तोड़ डालते हैं और कई बार तो मानव-हत्या भी कर डालते हैं।
यह एक अलग मुद्दा है कि जंगली जानवर इन्सानी बस्तियों में घुस आते
हैं, या इन्सान जंगली जानवरों के आशियाने में घुसते हैं।
यहाँ हम एक खबर की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं। खबर पिछले
महीने की है- हमने ही लिखने में देर कर दी है। ('दैनिक जागरण' (सन्थाल-परगना
संस्करण) में छपी 13 अगस्त की खबर को उद्धृत किया जा रहा है।)
दल से बिछुड़कर गाँवों में घुसकर उत्पात मचाने वाले उस हाथी को मार
डाला गया, जिसने 11 लोगों को मार डाला था। खबर के अनुसार, मारने में खर्च हुआ-
50,00,000 और उस हाथी के दाँत बिकेंगे 1,00,00,000 में! बस इसी जानकारी से हमें
खटका लगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि हाथी के दाँतों की वजह से ही उसे "बेहोश"
करने के बजाय उसे "मार डाला' गया? क्या किसी सभ्य देश में ऐसा किया जाता? उसे
बेहोश करके घने जंगलों में छोड़ आना असम्भव था? और फिर एक हाथी को मारने के पीछे
पचास लाख का खर्च दिखाने के पीछे भला क्या तुक है?
कुछ भी कहा जाय, हमें तो गोल-माल दिख रहा है...
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एक और त्रासद बात जो इस समाचार में नजर आ रही है, वह यह है कि हाथी
को जिस दिन मारा गया, वह दिन "विश्व हाथी दिवस" था- 12 अगस्त!
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दूसरी बात पर मेरा ध्यान गया कि हाथी मार्च के महीने में इस इलाके
में आया था। अब हमें लग रहा है कि तालझारी के आस-पास के गाँवों में हाथियों के
घुसने की खबरें जब भी अखबारों में आती हैं, तब कहीं वह मार्च का महीना ही तो नहीं
होता! अगर ऐसा है, तो मार्च के महीने और हाथियों के गाँवों में घुसने के बीच जरूर
कोई सम्बन्ध होना चाहिए। क्या है वह सम्बन्ध? महुआ? यही वह महीना है, जब गाँव वाले
जंगलों से महुआ चुन कर लाते हैं और घरों में जमा करते हैं, घूप में सुखाते हैं और
हो सकता है कि इस समय महुआ से शराब बनाने की प्रक्रिया भी तेज हो जाती होगी। ...तो
क्या महुए या महुए के शराब की खुशबू हाथियों को घने जंगलों से गाँवों की ओर खींच
लाती है? हाथियों को मद्यपान कराके मदमत्त करने की बात इतिहास में पढ़ी जाती है-
युद्ध के दौरान। हो सकता है, हाथियों को मद्य प्रिय हो!
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तीसरी बात- तलझारी के आस-पास के गाँव ही क्यों? इसके उत्तर में हम
यह अनुमान लगाते हैं कि तालझारी के आस-पास के इलाकों में पत्थरों के उत्खनन का काम
बहुत कम होता है- नहीं के बराबर। इस इलाके में जंगल घने हैं, शान्त हैं, मनुष्यों की
आवाजाही व मशीनों का शोर-शराबा बहुत कम है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हाथियों
से बचने के लिए इस इलाके में भी पत्थर-उद्योग को बढ़ावा दे दिया जाय!
कोई और रास्ता चुनना होगा। रास्ता क्या हो, इसपर गाँववालों को खुद
ही विचार करना होगा।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस : काका हाथरसी, श्रीकांत शर्मा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंगोल माल ही होगा ... खबर भी गोल माल करने के लिए होगी ...
जवाब देंहटाएंपहले तो इंसान कब्जा रहा है जानवरों की जमीन, जंगल फिर कहता है तो शहरों में चले आते हैं ये जानवर ...
कुकर्म !
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