कच्चू के पौधे यूँ तो हमारे घर के आस-पास साल भर उगे रहते हैं,
मगर बरसात में इसकी बढ़त कुछ ज्यादा ही तेज हो जाती है। कच्चू को ही घुईयाँ
कहते हैं- यह हमने जाना मेरठवासिनी श्रीमतीजी की बदौलत। जी, वही घुईयाँ, जिसका
जिक्र 'भाभीजी घर पर हैं' में गाहे-बगाहे होते रहता है।
खैर, बरसात में हमारे घर में इसके पत्तों की पकौड़ियाँ बनती हैं।
पता चला, श्रीमतीजी के घर में भी इसकी पकौड़ियाँ बनती थीं। फर्क यह है कि हमारे
यहाँ घर के पिछवाड़े से पत्ते तोड़ लिये जाते थे और मेरठ में ये पत्ते पैकेटों में
बिकते थे।
तो आज शाम वही लजीज पकौड़ियाँ घर में बनी हैं। श्रीमतीजी चाहती
हैं कि इसकी 'रेसिपी' लिखकर 'प्रतिलिपी' नामक वेब-पत्रिका में भेज दी जाय। मैं उस
रेसिपी को अभी-अभी इस ब्लॉग पर भी लिखता, मगर वो नाराज होकर चली गयी हैं। दरअसल, मैं
कम्प्यूटर खुला छोड़कर मिल (आटा-चक्की) चला गया था और कहकर गया था कि तब तक मोबाइल
से फोटो को कॉपी करके कम्प्यूटर में एक फोल्डर बनाकर रख देना। लौटा, तो बताया गया
कि कम्यूटर अपने-आप बन्द हो गया था और फिर से चालू हुआ है। हमने थोड़ा मजाक उड़ा
दिया और वो हट गयीं यहाँ से।
...तो 'रेसिपी' डालना फिलहाल नहीं हो पा रहा है। बाद में इसमें
जोड़ दिया जायेगा।
...तब तक पकौड़ियों के फोटो से ही स्वाद का
अन्दाजा लगाईये...
kya bate hai my dear husband
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