बरहरवा के लिए रामनवमी एक जमाने से वास्तव में
"महा"-उत्सव रहा है। यहाँ रहने वाले हर परिवार के घर में रिश्तेदारों के
आने-जाने का ताँता लग जाया करता था। पहले यह उत्सव 10 दिनों का होता था- चैत्र
शुक्ल प्रतिपदा से लेकर दशमी तक- जिसमें से अन्तिम 5 पाँच दिन बहुत भीड़-भाड़, जोश
और उमंग रहती थी। पंचमी से बिन्दुधाम में महा शतचण्डी यज्ञ की शुरुआत होती थी और
नवमी को पूर्णाहुति। इसी दौरान पहाड़ी के नीचे मैदान में लगने वाला मेला भी जोर
पकड़ता था। जयश्री टॉकीज वाले इस अवसर के खास फिल्म मँगवाते थी- कुछ के नाम अब भी
याद हैं- गीत गाता चल, सन्यासी इत्यादि- ये उस जमाने की नामी फिल्में हुआ करती थीं।
रामनवमी के जुलूस में सर्कस के हाथी भी शामिल हुआ करते थे, जिसपर बिन्दुधाम के
महन्त तलवार लेकर बैठते थे। दशमी के दिन सन्थालों के जत्थे आया करते थे-
नाचते-गाते।
अब ऐसा होता है कि यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद ही मेला ठीक से
जमता है और यह महीने भर तक जमा रहता है। यह मेला रात का मेला है।
बरहरवा रेलवे का एक
जंक्शन है, जहाँ से साहेबगंज-भागलपुर, पाकुड़-रामपुरहाट और फरक्का-मालदा की ओर
लाईनें जाती हैं। फरक्का वाली लाईन से फिर एक लाईन धुलियान की ओर जाती है- इस
प्रकार, कुल चार इलाकों से रामनवमी मेला घूमने आया करते थे लोग- बेशक, आज भी आते
हैं, मगर अब महीने भर का मेला होने के कारण भीड़ बँट जाती है। आस-पास के गाँवों से तो खैर, लोग आते ही थे/हैं। पहले पाँच-छह दिनों
(पंचमी से दशमी) का मेला होने के कारण ट्रेन आने के बाद बिन्दुवासिनी पथ पर लोगों
का रेला चल पड़ता था। ...और इस रेले के बीच से तांगा और रिक्शे वाले "हट
के", "बच के" की आवाजों के साथ ऐरोबेटिक्स करते हुए आगे बढ़ते थे।
तब यह कच्ची सड़क हुआ करती थी। रिक्शे में "पें-पों" की आवाज वाले भोंपू
हुआ करते थे और तांगे वाले अपनी चाबुक वाली छड़ी को चलते हुए पहिए के 'अरे' (स्पोक-
लकड़ी के) से सटाकर "खट-खट" की एक खास आवाज पैदा करते थे- हॉर्न के रुप
में। बहुत से लोग पहली बार तांगे की सवारी करते थे- हिचकोलों का मजा लेने के लिए।
***
आज नवमी के दिन यज्ञ की पूर्णाहुति होने
वाली है। आज मन्दिर जाना हुआ। उसी अवसर की कुछ तस्वीरें-
प्रथम प्रवेशद्वार- 108 सीढ़ियों की शुरुआत...
जहाँ लोग मन्नत माँगते हैं.
वहीं पर "महावीर ध्वजा" स्थापित करते लोग.
द्वितीय प्रवेशद्वार
मन्दिर.
माँ बिन्दुवासिनी के मुख्य मन्दिर के सामने श्रद्धालुओं की भीड़.
अन्दर मुख्य वेदी की सजावट कुछ इस तरह है- चार-छह दिनों पहले की तस्वीर नीचे-
मन्दिर की ओर सीढ़ियाँ चढ़ते लोग.
सूर्यदेव.
यज्ञशाला की परिक्रमा करते श्रद्धालु.
महाशतचण्डी यज्ञ. मुख्य आसन पर गंगा बाबा- आहुति देते हुए.
यज्ञशाला में ब्रह्मा-विष्णु-महेश के अलावे माँ दुर्गा की एक भव्य प्रतिमा है, उसकी तस्वीर नीचे- चार-छह दिनों पहले की-
एक और तस्वीर, कुछ दिनों पहले की. (अमन रॉय के फेसबुक वाल से साभार)-
एक और तस्वीर, कुछ दिनों पहले की. (अमन रॉय के फेसबुक वाल से साभार)-
बूढ़ा बरगद. पास में शिव-सती की प्रतिमा. किंवदन्ती के अनुसार, सती के रक्त की तीन बूँदें इस स्थल पर गिरी थीं.
मन्दिर के पीछे की ओर का विस्तृत प्राँगण.
रामनवमी के जुलूस की तैयारियों में कुष्माकर और संजीव 'आचार्यजी'.
"गुरुमन्दिर" (लाहिड़ी महाशय को समर्पित) के प्राँगण में सामूहिक हनुमान-चालीसा पाठ. युवतियों की संख्या अच्छी-खासी.
हनुमान-चालीसा पाठ में किशोरों-युवाओं की संख्या ही ज्यादा है. व्यवस्था सम्भालते हुए कैलाश- हर साल रामनवमी में कोलकाता से वह यहाँ पहुँच ही जाता है.
"पहाड़ी बाबा", जिन्होंने इस धाम को भव्य रुप प्रदान किया था.
एकबार फिर अमन रॉय के फेसबुक वाल से साभार पहाड़ी बाबा की यह तस्वीर- खासियत यह है कि इसमें "लाहिड़ी माहाशय" की तस्वीर भी पूरी आ गयी है- आम तौर पर लोग फोटो खींचते समय पीछे टंगे लाहिड़ी महाशय की तस्वीर को नजरअन्दाज कर जाते हैं-
एकबार फिर अमन रॉय के फेसबुक वाल से साभार पहाड़ी बाबा की यह तस्वीर- खासियत यह है कि इसमें "लाहिड़ी माहाशय" की तस्वीर भी पूरी आ गयी है- आम तौर पर लोग फोटो खींचते समय पीछे टंगे लाहिड़ी महाशय की तस्वीर को नजरअन्दाज कर जाते हैं-
शिव के "अर्द्धनारीश्वर" स्वरुप की पूजा.
एक "साफा होड़" साधू. ये लोग बड़ी संख्या में माघी-पूर्णिमा के दिन राजमहल के गंगातट पर पहुँचते हैं. इसी प्रकार, चैत्र के अष्टमी-नवमी के दिन ये लोग बिन्दुधाम आते हैं.
हनुमान जी की यह ऊँची प्रतिमा. सामने "साफा-होड़" श्रद्धालु परिवर.
यह स्थल बरहरवा का नया "लैण्डमार्क" बन गया है. यहाँ एक सेल्फी लिए बिना बरहरवा की यात्रा पूरी नहीं होती- खासकर, युवाओं के लिए.
विहंगम प्राकृतिक पृष्ठभूमि के चलते यह स्थान "फोटोग्राफी-प्वाइण्ट" बन गया है.
यह तैयारी "प्रोफेशनल" फोटोग्राफरों ने कर रखी है, पर हमने इसका फायदा उठा लिया...
एक और साफा-होड़ साधू. सच पूछा जाय, तो हिन्दू धर्म के प्रति सच्ची आस्था रखने वाले इन वनवासियों या आदिवासियों को देखकर बड़ा सुकून मिलता है कि मिशनरी वाले अब तक इनकी आस्था को डिगा नहीं पाये हैं. मगर अफसोस कि देश के तथाकथित हिन्दूवादी संस्थाओं का ध्यान इनकी ओर कभी नहीं जाता. शायद ढंग से शोध भी नहीं हुआ है- इनकी परम्पराओं आदि के बारे में!
मेला सजना शुरु हो गया है- कल-परसों से यह पूरे शबाब पर होगा...
***
पुनश्च: 6.4.17
कल दोपहर बाद जो शोभायात्रा निकली थी, उसकी भी दो-एक झलकियाँ देख ली जाय-
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पुनश्च: 6.4.17
कल दोपहर बाद जो शोभायात्रा निकली थी, उसकी भी दो-एक झलकियाँ देख ली जाय-
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