गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

161. चरक मेला- 2


       इस ब्लॉग के आलेख क्रमांक- 2 में चरक मेला का पहला भाग है। यह आलेख 2010 का है- 6 साल पुराना, मगर इसमें जिस मेले में जाने का मैंने जिक्र किया है, वह 2005 से 2008 के बीच के किसी साल का है। इसमें जिक्र है कि किसी-न-किसी साल मैं इस चरक मेले की तस्वीरें जरुर प्रस्तुत करुँगा। मगर मैं ऐसा नहीं कर पाया था। एक तो मुझे पाँच वर्षों के लिए बरहरवा से बाहर जाना पड़ा और दूसरे, 2009 या 10 के बाद वहाँ चरक मेले का आयोजन बन्द हो गया। इस साल खबर मिली कि पूरे छह वर्षों के बाद इस मेले का आयोजन वहाँ होने जा रहा है। सो, हम पहुँच गये समय पर।
       और इस प्रकार, तस्वीरें साझा करने की वह घड़ी आज आ गयी। 
       आज "पहला बैशाख" है, बँगला संवत् 1423 आज से शुरु हो रहा है। इस अवसर पर "ग्राम-बँगला" में और बँगाल के आस-पास के गाँवों में- जहाँ बँगला संस्कृति का प्रचलन है- "चरक मेला" का आयोजन होता है।
       प्रस्तुत तस्वीरें "चौलिया" गाँव (यह हमारा पैतृक गाँव है, बरहरवा से 7 किमी दूर) में आयोजित चरक मेले की है-


       गाँव में पीपल के एक पेड़- जिसपर नये कोमल पत्ते आने शुरु हो गये हैं- के नीचे छोटा-सा शिवालय है, वहाँ पहले कुछ ग्रामीण ढोल-नगाड़ों के साथ कुछ भक्ति गीत गाते हैं।


       फिर योगीजी को एक व्यक्ति अपने कन्धे पर बैठा कर लाता है।
       उसकी झोली में बताशे और कुछ कबूतर भरे जाते हैं।
       फिर उनको "चरक" से लटका दिया जाता है।


       ...और चरक को घुमाया जाता है।


       घूमते हुए वे कबूतरों को हवा में फेंकते हैं।


       घूमते-घूमते ही बताशे लुटाते हैं।


       ...और इसी प्रकार शाम ढल जाती है।


       लोग घरों की ओर लौटते हैं- हाँ, इस दौरान छोटी-मोटी दुकानें सज चुकी हैं चाट-पकौड़ियों की, उनका आनन्द उठाना भी लोग नहीं भूलते।

जोगी जी को कन्धे पर बैठाकर घर तक छोड़ा जाता है।

       अन्त में यह बता दूँ कि जिस लट्ठे पर चरक को घुमाया जाता है, वह पास के तालाब की तली में सालभर डूबा हुआ रहता है। किंवदन्ती है कि जब चरक मेले से पहले जब ढोल-नगाड़े बजने शुरु होते हैं, तब वह खुद ही तालाब के बीच में से खिसक कर किसी किनारे पर आ जाता है। कहा तो यहाँ तक जाता है कि एक बार यह लट्ठा इस तालाब में न मिलकर बगल के तालाब में मिला था! 

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