अपने बचपन में हम "खेत देके" स्कूल जाना पसन्द करते थे। "खेत देके"
मतलब- खेत से होकर।
पूरी बात इस तरह है कि हमारा घर जिस सड़क पर है, उसका नाम
"बिन्दुधाम पथ" है और यह बरहरवा के "मेन रोड" यानि मुख्य सड़क
के लगभग समानान्तर है। हमारा स्कूल यानि "श्री अरविन्द पाठशाला" मुख्य
सड़क पर था। था मतलब अब भी है, अब भवन बदल गया है। इन दोनों समानान्तर सड़कों के बीच
खेतों का एक बहुत बड़ा रकबा है, जहाँ धान की खेती होती थी- अब भी होती है। गेहूँ-जौ
या दलहन-तेलहन की फसल कम ही लोग लगाते थे- अब तो खैर, कोई भी नहीं लगाता। यूँ तो
हम सालभर ही खेत देके स्कूल जाना पसन्द करते थे, मगर बरसात में हमें मना किया जाता
था। खेतों में पानी भरा होता था, जिसमें धान की फसल खड़ी रहती थी और मेड़- जिसे हम
"आली" कहते थे- घास से ढकी होती थी। हम अक्सर घरवालों की अनसुनी करके
कीचड़ वगैरह लाँघते-फलाँगते खेत देके ही स्कूल जाना पसन्द करते थे। नवम्बर में धान
की फसल कटने के बाद तो बच्चे क्या, बड़े तक इस खेत वाले रास्ते को अपनाते थे।
प्रायः हर खेत में टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियाँ बन जाया करती थीं।
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जमाना बीता। इस खेत वाले रास्ते को मैं भूल ही गया था।
पिछले कुछ दिनों से फिर इसी रास्ते से, यानि "खेत
देके" जाना-आना कर रहा हूँ। अब हालाँकि एक छोटे-से हिस्से की
"प्लॉटिंग" हो गयी है और कंक्रीट निर्माण शुरु हो गया है, फिर भी
निन्यानबे फीसदी हिस्सा अब भी खेत ही है। बीच-बीच में जो तीन "बाड़ियाँ"
थीं, वे अब भी हैं, मगर अब वहाँ पेड़ या जंगल कुछ कम नजर आ रहे हैं। एक तालाब था,
वह अब भी है।
अब बड़े होने के बाद इस छोटे रास्ते- शॉर्टकट- से गुजरते वक्त एक
अलग किस्म का अहसास होता है। सड़क को छोड़कर किसी पतली या चौड़ी गली में कुछ कदम चलने
के बाद हम अचानक एक खुली- विस्तृत- जगह पर आ जाते हैं... ऐसा लगता है, किसी अलग
दुनिया में आ गये हैं!
पता नहीं, कितने लोग होंगे, जो मेरे इस मनोभाव को ठीक-ठीक समझ सकेंगे...
क्योंकि जिन्दगी की आपाधापी में हम अपने आस-पास के ऐसे इलाकों को अक्सर देखकर भी
अनदेखा कर देते हैं... कुछ अहसास करना तो बहुत दूर की बात होती है...
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " खूंटा तो यहीं गडेगा - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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