मलूटी एक छोटा-सा गाँव है। पड़ता तो यह है झारखण्ड के दुमका जिले में, मगर यह
बंगाल के रामपुरहाट से नजदीक है।
गाँव पुराना है। गाँव के बीच-बीच में छोटे-छोटे बहुत सारे मन्दिर
बने हुए हैं, जो ढाई-तीन सौ साल पुराने हैं। मन्दिरों की खासियत है- सामने की
दीवार पर जो नक्काशियाँ की गयी हैं और माँ दुर्गा तथा भगवान राम की कथाओं से जो
चित्र उत्कीर्ण किये गये हैं, वे “टेराकोटा” शैली के हैं। यानि इन्हें मिट्टी पर
अंकित कर मिट्टी को पकाया गया है और फिर मन्दिर की दीवार पर चिपकाया गया है।
ज्यादातर मन्दिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। कुछ तो ध्वस्त हो
रहे हैं। फिर भी, एक अच्छी-खासी संख्या सही-सलामत है। बताया जाता है कि किसी जमाने
में 108 मन्दिर थे, अब लगभग 75 मन्दिर बचे हुए हैं। 50 से ज्यादा मन्दिर भगवान शिव
को समर्पित हैं, जिनके गर्भगृह में काले ग्रेनाइट पत्थर के छोटे-बड़े शिवलिंग
स्थापित हैं। ज्यादातर शिवलिंग भी टूट-फूट रहे हैं। जो ठीक हैं, उनकी पूजा-अर्चना
होती है।
ये मन्दिर बंगाल की प्रसिद्ध स्थापत्य शैली “शिखर” या “चाला” शैली
के हैं, जो देखने में “कुटिया”-जैसे लगते हैं। कुछ मन्दिर उड़ीसा के “रेखा” शैली के
भी हैं। एक मन्दिर पर तो यूरोपीय शैली की छाप है और एक चारों तरफ से खुले “रासमंच”
शैली की है- दोनों जीर्ण अवस्था में हैं।
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इतिहास कुछ यूँ है कि जमीन्दार “बाज बसन्त” के वंशजों ने इन
मन्दिरों का निर्माण करवाया था।
“बाज बसन्त” की किंवदन्ति
हमें 15वीं सदी के अन्तिम वर्षों में ले जाती है। बसन्त राय निर्धन युवक थे। एक
बार पशु चराने के क्रम में वे पेड़ की छाया में सो रहे थे। छाया हटने के बाद एक नाग
ने अपना फन फैलाकर उनके चेहरे पर छाया कर दी, ताकि बसन्त राय की तन्द्रा न टूटे।
काशी के सुमेरू मठ के महन्त दण्डिस्वामी निगमानन्द तीर्थयात्रा के क्रम में वहाँ
से गुजर रहे थे। यह दृश्य देखकर वे समझ गये कि युवक असाधारण है। युवक की विधवा माँ
से मिलकर उन्होंने यह बात बतायी। फिर वे अपनी तीर्थयात्रा पर आगे बढ़ गये।
उधर, गौड़ (बंगाल के
मालदा टाउन के निकट तत्कालीन बंगाल प्रान्त की राजधानी) के बादशाह हुसैन शाह उड़ीसा
से लौट रहे थे। मयूराक्षी नदी के किनारे उनका शाही शिविर लगा था- हफ्तेभर के लिए।
अन्तिम दिन उनकी बेगम का पालतू बाज पिंजड़े से निकलकर उड़ गया। बादशाह ने मुनादी
करवायी कि बाज को लाने वाले को समुचित ईनाम दिया जायेगा। इस मुनादी को सुनकर
स्वामी निगमानन्द फिर युवक बसन्त राय के घर आये। आकर देखा कि सही में बसन्त राय ने
ही उस बाज को पकड़ रखा है। युवक तथा बाज के साथ वे बादशाह के शिविर में पहुँचे।
युवक की निर्धनता की बात कहकर उन्होंने युवक के लिए जमीन्दारी की माँग की। बादशाह
ने भी प्रसन्न होकर करमुक्त जमीन्दारी युवक को दे दी।
तब से बसन्त राय को “बाज
बसन्त” कहा जाने लगा। बाज बसन्त ने बंगाल के बीरभूम जिले के डामरा गाँव को अपनी
राजधानी बनायी।
आगे चलकर- 17वीं सदी के
मध्य में- “बाज बसन्त” के वंशज राजनगर के राजा से युद्ध में हार गये और “बाज
बसन्त” के ये वंशज डामरा छोड़कर मलूटी गाँव में आकर बस गये।
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बीरभूम जिले का यह पश्चिमी
अंचल जंगलों से भरा था। यहाँ बौद्ध तांत्रिकों ने अपनी एक गुप्त साधना स्थली बना
रखी थी। बाज बसन्त के वंशजों ने यहाँ आकर जब जंगलों की सफाई करवायी, तो बौद्ध
तांत्रिक यहाँ से तारापीठ चले गये। उनके द्वारा परित्यक्त उपासना स्थली में बाज
बसन्त के वंशजों ने अपनी कुलदेवी की स्थापना की। देवी का नाम दिया- “मौलीक्षा”
(“मौली”- मस्तक, “ईक्षा”- दर्शन। प्रतिमा त्रिनयनी देवी के मस्तक की है।)
इस वंश में राखड़चन्द्र
राय हुए, जो तंत्र साधना करते थे। पूजा के लिए वे 15 किलोमीटर दूर तारापीठ जाया
करते थे। तारापीठ आज भी प्रसिद्ध शक्तिपीठ एवं तांत्रिक सधनापीठ है। एकबार तारापीठ
के सन्यासियों से उनकी अनबन हुई कि वे उनके अवधूत की पूजा से पहले पूजा नहीं कर
सकते। पूजा को अधूरा छोड वे नदी (द्वारका नदी, जो तारापीठ के बगल से बहती है) की
दूसरी तरफ आये, जो उनकी जमीन्दारी में पड़ता था। थोड़ी-सी जगह साफ करवाकर उन्होंने
घट स्थापित किया और अपनी अधूरी पूजा को सम्पन्न किया। माँ तारा उनपर प्रसन्न हुईं
और तारापीठ मन्दिर में स्थापित उनकी प्रतिमा का मुंह उत्तर से घूमकर पश्चिम की ओर
हो गया- जिधर राखड़चन्द्र पूजा कर रहे थे! यह तिथि थी- आश्विन माह की शुक्ल
चतुर्दशी।
अब इस किंवदन्ति में
कितनी सच्चाई है, पता नहीं, पर कहते हैं कि आज भी प्रतिवर्ष आश्विन माह के शुक्ल
चतुर्दशी के दिन तारा माँ की प्रतिमा को गर्भगृह से निकाल कर सामने बरामदे में
लाया जाता है और उनका मुँह पश्चिम की ओर रखा जाता है- उस करीब 300 साल पुरानी घटना
या चमत्कार की याद में! उस दिन उसी स्थल से मलूटी की तरफ से तारा माँ की पूजा पहले
की जाती है, जिस स्थल पर राखड़चन्द्र ने घट स्थापित किया था; इसके बाद ही विधिवत्
पूजा शुरु होती है।
राखड़चन्द्र ने उस घट को
मलूटी लाकर माँ मौलीक्षा के मन्दिर में ही स्थापित कर दिया था।
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साधक बामाखेपा पहले दो
साल मलूटी में इसी मन्दिर में रहे थे। यहीं उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी। यहाँ से
वे तारापीठ गये थे। कहते हैं कि बामाखेपा का त्रिशूल अब भी यहीं स्थापित है।
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मलूटी के मन्दिर गाँव के
घरों, गलियों, चौराहों से इस तरह घुले-मिले हैं कि लम्बे समय तक बाहर के लोग इनके
बारे में जानते नहीं थे। 1978-79 में किसी तरह से इनका प्रचार हुआ। अब झारखण्ड
सरकार इस स्थल को “मन्दिरों के गाँव” के रुप में पर्यटक स्थल बनाना चाहती है। इस
तरह के बयान भी आते रहते हैं- झारखण्डी राजनेताओं के मुँह से। मगर मलूटी गाँव
घूमते वक्त महसूस होता है कि- इन बयानों को चरितार्थ करने की “इच्छाशक्ति” एक
रत्ती भी नहीं है! हाँ, एक जगह चार-छह मन्दिरों के जीर्णोद्धार का काम चल रहा है।
एक मन्दिर के द्वार के
मुख्य पैनल पर महिषासुर मर्दिनी की सुन्दर कलाकृति बनी नजर आयी, मगर पता चला, उस
मन्दिर के सामने जाने का कोई रास्ता ही नहीं बचा है। एक ही रास्ता है, उसे भी बबूल
के काँटों और झाड़ से बन्द कर दिया गया है- पता नहीं क्यों!
...बस यही एक उदाहरण
काफी है यह जतलाने के लिए हम झारखण्डी अपने इतिहास, अपनी विरासत को लेकर कितना
सचेत हैं...
वाह जयदीप जी.हमारी विरासत बहुत समृद्ध है - अब भी - इतनी उपेक्षा के बावजूद. आपके आलेख से हम वहाँ घूम लिये. लगता है बंगाल में टेराकोटा मंदिर कई हैं.
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