आज का बचपन मोबाइल की भेंट चढ़ गया है। ऐसे में, जब घर के सामने कुछ बच्चे आकर खेलते और शोर
मचाते हैं, तो बहुत अच्छा लगता है- कम-से-कम मुझे।
हमारे बचपन में खेलने-कूदने का स्थान बहुत
ज्यादा होता था। कभी-कभी तो चोर-सिपाही खेलने के लिए एकाध किलोमीटर
खेत-खलिहान-बगान की जरुरत पड़ जाती थी। जाड़े में धान कटने के बाद खुद कुदाल उठाकर
"गद्दी" के लिए मैदान बनाना हमलोगों का हर साल का काम होता था। (गद्दी
चुस्ती-फुर्ती और दम-खम का जबर्दस्त खेल हुआ करता था- टीम वाला।)
हमलोग एक तरफ क्रिकेट, वॉलीबॉल, बैडमिण्टन
खेलते थे, तो दूसरी तरफ डेंगा-पानी, सतमी ताली, लुका-छिपी, बुढ़िया-कबड्डी-जैसे
देशी खेल भी बहुत खेलते थे। इसके अलावे, कभी पतंग का दौर चलता था, तो कभी लट्टू का।
तब न टीवी हुआ करता था, न कम्प्यूटर न मोबाइल। सो, शाम को- और छुट्टी के दिन दिन
में भी- घ्रर से बाहर निकल कर खेलने के अलावे और कोई उपाय ही नहीं था समय बिताने
का। हाँ, पत्र-पत्रिकायें और पुस्तकें बहुत मिला करती थीं हमें पढ़ने के लिए-
नन्दन, चम्पक, बालक, बाल-भारती, पराग, मेला, चन्दामामा, गुड़िया, कुटकुट, लोटपोट,
मधु मुस्कान, अमर चित्र कथायें, इन्द्रजाल कॉमिक्स, राजन-इकबाल के कारनामे वगैरह-वगैरह...
खैर। ज्यादातर देशी खेल तो खो गये हैं।
उनके बारे में लिखना भी चाहूँ, तो शायद न लिख पाऊँ। जैसे कि "ओक्का-बोक्का"
ही पूरा याद नहीं आ रहा- 'ओक्का-बोक्का तीन-तिरोक्का, लोहा-लाठी चन्दन काठी, बाग
में बगवन डोले, सावन में करैला फूटे..... " बाकी याद ही नहीं रहा...
देखता हूँ कि कुछ नये खेल बच्चे खेलते हैं।
यानि अगर पुराने खेल अगर खत्म हो रहे हैं, तो कुछ नये खेलों का जन्म भी हो रहा
है...
... यानि दुनिया अभी कायम रहेगी, क्यों? जब
तक इस पृथ्वी पर बच्चे खेलते-कूदते, हँसते-चहकते रहेंगे, तब तक भला कौन दुनिया को
मिटा सकता है-?
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अच्छी चर्चा !
जवाब देंहटाएंगोस्वामी तुलसीदास