दिनभर घर से बाहर रहने के कारण चूल्हे की तस्वीर नहीं खींच पाया
था। अभी रात घर आकर किसी तरह
अभिमन्यु को राजी किया तस्वीर खींचने के लिए। अब तक सफेद अड़हुल के फूल कुम्हला चुके थे। दरअसल, आज हमारे घर में चूल्हों की
पूजा हुई है।
यूँ तो चूल्हे को बँगला में
"उनून" भी कहते हैं; पर हमारे घर में इसे "आँखा" कहते हैं।
चूल्हे की पूजा को "आँखापालोनी" कहते हैं। श्रावण के किसी एक सोमवार को
यह पूजा होती है। इस दिन चूल्हा नहीं जलता। आज वही दिन था। कल ही अतिरिक्त भोजन सामग्री तथा पकवान्न पका लिये गये थे।
इस घरेलू पर्व को साँपों से भी जोड़ दिया
गया है। पहले जब कोयले तथा लकड़ी के चूल्हे हुआ करते थे, तब सुबह चूल्हे की राख
निकालते समय साँप निकल आया करता था- दादी के जमाने में। तब चूल्हे की पूजा की
परम्परा शुरु हुई। अब मानते हैं कि इस पूजा के बाद आँगन-पिछ्वाड़े में साँप दीखने
बन्द हो जायेंगे। वैसे भी, आजकल साँप कम ही दीखते हैं- हर खाली पुरानी जगह पर तो
मकान बन चुके हैं। "हरहरिया" साँप तक देखे जमाना हो गया- जब कि बरसात में इनका आँगन में इधर-उधर गुजरना आम हुआ करता था!
***
जो भी हो, एक दिन चूल्हे को आराम मिलने पर
घर की महिलाओं को भी आराम मिल ही जाता है। मैंने अंशु को सुझाव दिया- माँ से कहो,
हर महीने के किसी एक सोमवार को आँखापालोनी मनाया जाय!
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