बीती
रात आँधी आयी- बारिश लेकर।
यह कौन-सी
आँधी थी, पता नहीं, क्योंकि यह शायद पश्चिम से आयी थी। (कल शाम ही समाचार में सुना
था कि दिल्ली में आँधी चल रही है।)
हमारे इलाके
में इस बैशाख महीने में आने वाली आँधियों को "काल बैशाखी" कहते हैं। यह चक्रवातीय
तूफान बंगाल की खाड़ी से उठता है, और तटीय इलाकों में तो अक्सर कहर ढा देता है। मगर
हमलोग चूँकि समुद्र से काफी दूर हैं, इसलिए वहाँ सिर्फ तेज हवायें चलती हैं और
बारिश होती है। पहले छप्पर, टिन वगैरह उड़ते थे, अब छप्पर कम ही होते हैं। हाँ, कुछ
साल पहले रंजीत की दूकान से 'सीढ़ी घर' की छत से एसबेस्टस की एक शीट उड़कर हमारे घर
के पास आकर गिरी थी।
***
खैर, यह आँधी
कुछ याद दिला गयी।
रात में चलने
वाली ऐसी आँधियों के बाद सुबह-सुबह हमलोग "टिकोला" चुनने जाया करते थे।
इस तरह के सारे काम मुझे "प्रीतम" सिखाता था। भले उम्र में वह मुझसे
छोटा था, मगर समझदार वह मुझसे ज्यादा था। वह कहीं से भागता हुआ आता था और धीमे स्वर में कहता था- मोनू, एगो जग्घुन जैबे? यानि एक जगह चलोगे? वह जगह को जग्घुन बोलता था। मेरे पिताजी अक्सर उसे
"खुराफाती" कहते थे।
"टिकोला"
यानि कच्चे आम। बचपन में हमलोग इसके दीवाने हुआ करते थे। ब्लेड या चाकू से काटकर
नमक के साथ चटखारे लेकर हमलोग इसे खाते थे और आँखें मिचमिचाते रहते थे।
पेड़ से टिकोले
तोड़ना मना होता था, मगर आँधी के बाद जमीन पर गिरे टिकोलों को चुनने में कोई मनाही
नहीं होती थी और सभी बच्चों के पास काफी टिकोले जमा हो जाते थे।
***
अभी भी सड़कों
पर बहुत से टिकोले गिरे होंगे, मगर अब उन्हें उठाने का मन नहीं होता... खाने का भी
मन नहीं करता।
मेरा बेटा तो
शायद टिकोले का स्वाद जानता ही नहीं होगा.... अब क्या कहा जाय- ?
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वाह ये आंधियां जाने कहां कहां बहा ले गईं । जयदीप भाई , अफ़सोस कि अब गांव में लगे आम के पेडों पर भी हर बरस कहां टिकोले आते हैं , और आएं भी क्यों हमही कौन सा हर बरस उनसे मिलने जा नहीं पाते (:
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