अगर आपके
पास रेडियो नहीं है, तो मेरी सलाह है कि ले लीजिये; और अगर आपका रेडियो कहीं
इधर-उधर पड़ा है, तो उसे झाड़-पोंछ कर ठीक करा लीजिये। इसके बाद शॉर्टवेव पर रेडियो की सूई को किसी तरह से “विविध भारती” पर सेट कर
लीजिये- बाकायदे मार्कर से वहाँ निशान लगा दीजिये, ताकि खिसक जाने पर दुबारा स्टेशन
लगाना आसान हो। मैं मुम्बई से (शॉर्टवेव पर) “सीधे” प्रसारित होने
वाले विविध भारती कार्यक्रम की बात कर रहा हूँ- अन्यान्य शहरों से (एफ.एम. पर)
थोड़े समय के लिए “रिले” होने वाले विविध-भारती कार्यक्रम की नहीं।
अब सुबह छह बजे रेडियो चालू कर दीजिये- पहले
भक्ति-संगीत आयेगा, फिर कुछ रूमानी युगल गीत, उसके बाद पुराने गाने, फिर शास्त्रीय
संगीत, फिर प्रेरणा देने वाले फिल्मी गीत और इसी प्रकार दस बजे तक कार्यक्रम चालू
रहेंगे। घर के किशोरों-युवाओं के लिए नये जमाने के गाने सवा आठ बजे से आते हैं।
दोपहर में “शॉर्टवेव” के साथ परेशानी
होने लगती है। अगर आप मुम्बई से काफी दूर हैं, तो शायद विविध भारती पकड़े ही नहीं।
मुझे तो शर्म आती है यह देखकर कि रेडियो पर चीनी भाषा के कार्यक्रम (ये भी
शॉर्टवेव पर दूर से आते हैं) बहुत ही अच्छी आवाज में सुनाई पड़ते हैं, मगर हम
भारतीय आज तक देशी तथा शक्तिशाली ट्रान्सपोण्डर (शायद यही कहते हैं) तक नहीं बना
पाये हैं! जो लगे होंगे विविध भारती के स्टेशन पर, वे भी 1960-70 के होंगे!
खैर, दोपहर के कार्यक्रम सुनने के लिए आप “रिले” प्रसारण की मदद
ले सकते हैं। खासकर, घर में रहने वाली गृहणियों/युवतियों के लिए ये कार्यक्रम
शानदार होते हैं। ये 5 या 5:30 तक चालू रहते हैं।
शाम 7 बजे फिर शुरु कर दीजिये- अब आपकी मर्जी-
अगर आप देर से सोते हैं, तो रात ग्यारह बजे तक धीमी आवाज में सुरीले गानों का
आनन्द लेते रहिये। एक जमाने में रात ग्यारह बजे कार्यक्रम चलते रहने तक मैं पढ़ाई (इग्नू
की) करता रहता था। अब तो खैर, 9-9:30 तक सो जाता हूँ। दोपहर के कार्यक्रम कभी-कभार
छुट्टियों के दिन ही सुन पाता हूँ, मगर सुबह के कार्यक्रम शायद ही कभी छोड़ता हूँ।
रेडियो की सबसे बड़ी खासियत है- यह आपको
बाँधकर नहीं रखता- आप अपना काम करते रहिये- यह आपका मनोरंजन करते रहेगा। जैसे, अभी
मैं यह टाईप कर रहा हूँ और पीछे गाना बज रहा है- “अहसान तेरा होगा मुझपर...”। जबकि टीवी आपको
सामने बैठा देता है- आलसी, बल्कि “इडियट” बनाकर। बेशक टीवी भी देखिये, मगर रेडियो को तो जरूर
अपनाईये- इसे आप मेरा व्यक्तिगत अनुरोध समझिये....
स्कूली दिनों में जिन गानों का हम मजाक बनाया
करते थे- वही गाने आज दिल को सुकून पहुँचाते हैं। उनदिनों हम अपनी दीदीयों का भी
मजाक बनाया करते थे- क्योंकि वे रेडियो के गानों की दीवानी होती थीं- आज कुछ हद तक
यह दीवानापन मैं अपने अन्दर भी महसूस करता हूँ...
अन्त में, कृपया याद कीजिये... बुधवार की वे
शामें... जब लोग रेडियो के आस-पास बैठ जाते थे “बिनाका गीतमाला” सुनने के लिए...
अमीन सायनी की आवाज गूँजती थी- “बहनों और भाईयों...”
शायद रविवार को “एस कुमार का
फिल्मी मुकदमा” आया करता था...
खैर, आप फिलहाल विविध-भारती सुनना शुरु तो
कीजिये... जल्दी ही आप महसूस करेंगे- कमल शर्मा, युनूस खान, अमरकान्त... इत्यादि
आपके पुराने दोस्त हैं...
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