चित्र में सरसों के पीले फूलों से
ढका खेत का एक टुकड़ा दिखायी पड़ रहा होगा। ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि उसके बाद
खेतों का एक विशाल रकबा वीरान पड़ा है- यानि परती। हमारे इलाके में आजकल यह दृश्य
आम है। धान की फसल के बाद करीब 90 प्रतिशत खेत परती रह जाते हैं। मुश्किल से दस
प्रतिशत खेतों में दलहन, तेलहन, गेहूँ और जौ के फसलें लहलहाती हैं। दस साल पहले
हालात ऐसे न थे- रबी फसलों के मौसम में भी
ज्यादातर खेत हरे-भरे रहते थे और बीस साल पहले तो रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों
के न के बराबर प्रयोग के बाद भी ऊँची-ऊची फसलें लहलहाती थीं।
व्यक्तिगत
रुप से हम खेती-बाड़ी से जुड़े नहीं हैं, पर दादाजी और पिताजी होम्योपैथ डॉक्टर होने
के साथ खेती-बाड़ी में रुचि रखते थे, इसलिए थोड़ी-बहुत रुची हम भी रखने लगे हैं।
अपने पैतृक गाँव में किसानी करने वाले कुछ गृहस्थों से बातचीत करने के बाद पता चला
कि पहले खेतों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर Shallow Boring हुआ
करते थे। किसान डीजल पम्प सेट के सहारे इनसे सिंचाई कर लिया करते थे। पिछले कुछ
वर्षों में तरक्की हुई, बिजली गाँवों तक पहुँची, सरकार ने अनुदान दिया और बड़े
किसानों ने लाखों खर्च करके Deep Boring करवा लिया।
इनसे वे खुद के खेतों में तो सिंचाई करते ही हैं, अन्यान्य किसानों को पानी बेचते
भी हैं सिंचाई के लिए। एक-एक गाँव के आस-पास दर्जन भर डीप-बोरिंग हो गये हैं...
नतीजा यह हुआ कि अब शैलो-बोरिंग से (डीजल पम्प के सहारे) पानी नहीं निकाला जा सकता-
भूजल का स्तर नीचे चला गया है। ...इस प्रकार, मध्यम एवं छोटे किसानों/भागीदारों के
खेत तथा डीप बोरिंग से काफी दूरी वाले खेत धान कटने के बाद परती रह जाते हैं।
हमने
पूछा- तालाब? जवाब में गाँव के आस-पास के पाँच-सात तालाब दिखा दिये गये- किसी में
पानी नहीं था। धान की फसल जब तैयार हो रही थी, तब अन्तिम पटवन के लिए इन तालाबों
से पानी लेना पड़ा। अब रबी फसलों की बुवाई लायक पानी इनमें नहीं बचा।
मेरा
कहना था, रबी फसलों को तो ज्यादा पानी नहीं चाहिए- धान कटने के बाद थोड़ी-बहुत नमी
तो रहनी चाहिए खेतों में। और फिर दो-तीन दिन हल्की-फुल्की बारिश भी हुई थी-
चक्रवात वाली। इसके जवाब में हमें यह जानकारी मिली कि पहले जब हल से खेतों की
जुताई होती थी, तब मिट्टी नर्म रहती थी; अब जब से ट्रैक्टरों से जुताई होने लगी
है- मिट्टी पत्थर-सरीखी होने लगी है- नंगे पैर इनपर चलना मुश्किल हो गया है। दूसरी
बात- पहले जब यूरिया, डी.ए.पी. का प्रयोग नाम मात्र का होता था, या नहीं ही होता
था, तब खेतों में केंचुए बहुतायात में पाये जाते थे। खेतों के मेंड़ तक केंचुओं से
भरे होते थे। केंचुए मिट्टी को हल्का बनाये रखते थे। केंचुए अब खेतों में नहीं
होते। इन दो कारणों से आजकल खेतों की मिट्टी नमी बनाये नहीं रख पाती। कहने की
आवश्यकता नहीं कि नर्म और पोली मिट्टी नमी को ज्यादा समय तक रोकती है और सिंचाई के
दौरान कम पानी माँगती है। ट्रैक्टर तथा यूरिया- ये दोनों भी तरक्की की निशानी हैं।
*
जाहिर
है, मेरे-जैसा आदमी अब यह सोच रहा है कि क्या वाकई यह तरक्की है? इससे से बेहतर
होता कि खेती में हम तरक्की न ही करते! हल-बैलों से खेतों की जुताई होती; गोबर, घरेलू
कचरे और चूल्हे की राख के खाद डाले जाते; किसान परिवार एक-दूसरे की मदद करते; साल
भर के लिए अनाज उपजाते और अतिरिक्त उत्पाद बेचकर नकगी कमाई जाती।
मेरे
विचार का मजाक उड़ाया जाने लगेगा, इसलिए इस पर हम और चर्चा नहीं करते। कुछ दूसरी
हल्की-फुल्की बातें कर लेते हैं।
*
हमारे
बरहरवा में चार् मुख्य सड़कों के बीच खेतों का एक बड़ा-सा (प्रायः त्रिभुजाकार) रकबा
है। हमें याद है कि अपने बचपन में होलिका दहन के पहले हमलोग इन खेतों से गेहूँ और
चने के कुछ पौधे उखाड़ लाते थे और एक डण्डे पर इन्हें बाँधकर जलती होलिका में
इन्हें पकाते थे। अब ये खेत खाली हैं- परती। हालाँकि पिछले साल ही किसी भागीदार ने
हिम्मत करते कुछ खेतों में गेहूँ-चना बोया था, पर लगता है, उसे लाभ नहीं हुआ। इस
साल ये खेत खाली हैं।
प्रसंगवश,
आग में चना को भूनकर जब खाया जाता है, तो उसे ओल्हा होल्हा, होरहा या ऐसा ही कुछ
कहा जाता है। मेरा अनुमान कहता है कि पुराने जमाने में यह आम बात होती होगी। खेतों
में आग जलाकर चने को उनमें भूनकर खाया जाता होगा और मौज-मस्ती की जाती होगी। जाड़े
में हाथ सेंकना भी हो जाता होगा और फगुनाहट की मस्ती भी ली जाती होगी।
ग्रामीणों-किसानों की यही परम्परा बाद में परिष्कृत होकर "होलिका" बन
गयी होगी और समय के साथ इसमें रंगों का त्यौहार होली भी जुड़ गया होगा। बाकी
कहानियाँ तो बाद में जोड़ दी गयी होंगी।
*
यह चित्र "धान के गोले" का
है। धान रखने के लिए आँगन में इसे बनवाया जाता है। शुद्ध हिन्दी में शायद इसे
"खत्ती" कहेंगे। अपने पैतृक गाँव में एक गोले को देखकर याद आया कि हमारे
बचपन में हमारे आँगन में धान रखने का एक विशाल गोला हुआ करता था। ...साथ में यह भी
याद आया कि इसकी फूस की छप्पर में हमने एक शाम आग लगा दी थी। दरअसल, उन दिनों
धान-गेहूँ के अलावे पटसन (पटुआ या जूट) की भी थोड़ी-बहुत खेती होती थी हमारे इलाके
में। तब उसकी "सण्ठियों" का एक गट्ठर हमारे घर में रखा रहता था। ये
सण्ठियाँ जलती बहुत अच्छी थीं। दोपहर के बाद कोयले के चूल्हे में थोड़ी-सी आँच बची
होती थी। हमने एक सण्ठी जलाई और खिड़की से बाहर गोले के पुआल में आग पकड़ा दी- सोचा,
दो-एक पुआल जलेंगे, और हम पानी से बुझा भी देंगे। पर आग भड़क गयी। पड़ोसियों की मदद
से यह बुझी। गोले का धान भी भींग गया।
...अपनी इस
तरह की बदमाशियों को याद करने पर लगता है कि आजकल के बच्चे कितने शरीफ होते हैं,
है न?
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पुनश्च:
अपने गाँव में हमने कुछ किसानों को
राजीव दीक्षित जी का एक विडियो दिखाया कि कैसे खेती में लागत कम करके उत्पादन
बढ़ाया जा सकता है। वे प्रभावित तो हुए, पर इसे शायद ही अपनायें। कभी मूड बना, तो
हम खुद ही अपने दम पर इस तरह से खेती करने की कोशिश करेंगे। आप भी अगर खेती-बाड़ी
से जुड़े हैं, तो इस विडियो को एकबार जरुर देखें। लिंक यहाँ है।
जीरो बजट खेती खामखयाली है।हां किसानों को खेती के परंपरागत तरीकों की ओर लौटना होगा।बैलों के माध्यम से खेतों की जुताई, रासायनिक खादों का कम से कम उपयोग तथा जल संरक्षण की परंपरागत तरकीबें प्रयोग में लानी होंगी।अन्यथा खेती/किसानों को बचाना मुश्किल होगा ।
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