मौनसून के बादलों के आने से एक दिन पहले हमारे बरहरवा के पश्चिमी
क्षितिज पर राजमहल की पहाड़ियों के ऊपर सूर्यास्त के बाद रंगों का कुछ ऐसा मेला सजा
था- मानो, मौनसून के आगमन की सूचना मिल गयी हो और उसी के स्वागत में यह रंगोली सजायी
जा रही हो...
अगले दिन मौनसून ने दस्तक दिया। 'दस्तक' शब्द छोटा पड़
रहा है। जैसी गर्जन और जैसी कड़कड़ाहट थी कि यही कहा जा सकता है कि धूम-धड़ाके के साथ
मौनसून से ने हमारे "कजंगल" क्षेत्र में, हमारे 'दामिन-ए-कोह" में
प्रवेश किया!
इसके बाद आया आषाढ़ का महीना। वाकई वर्षा ऋतु का अहसास हो गया।
और सावन?
मत पूछिये। सावन के पहले दिन से ही जो झड़ी शुरु हुई, कि बस मन का
मोर नाच उठा।
सारे ताल-तलैये भर गये...
खेतों में धान रोपने का काम जोर-शोर से शुरु हो गया...
दूर जाने की क्या जरुरत? हमारे घर के आस-पास भी पानी जमा हो जाता
है... (कंक्रीट की सड़कें ऊँची होती जाती हैं, रिहायशी इलाके डूबते जाते हैं... ।
हम तो उस महान आदमी का खुर-स्पर्श करना चाहेंगे, जिसने कंक्रीट की मोटी-मोटी सड़कें
बनवाने का आइडिया सरकार को दे रखा है!)
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यह सही है कि बहुत-से नगरों में वर्षा ने तबाही मचा रखी है, मगर
ध्यान से सोचिये तो इसमें दोष वर्षा ऋतु का नहीं, हम मानव जाति का है। जनसंख्या,
नगरीकरण, औद्योकिकरण हमीं लोगों ने बढ़ाया है। नगरों में तालाबों, नालों का अस्तित्व
समाप्त हो रहा, मिट्टी का क्षेत्रक़ल घट रहा और कंक्रीट का बढ़ रहा, तो ऐसी
समस्यायें आयेंगी ही।
सच तो यह है कि मानव द्वारा पर्यावरण पर किये जा रहे इतने
अत्याचारों के बाद भी वर्षा ऋतु का समय पर आना प्रकृति की हम पर बड़ी कृपा है...
ये अन्तिम दो तस्वीरें
अभी कुछ देर पहले की-
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " संभव हो तो समाज के तीन जहरों से दूर रहें “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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