जगप्रभा

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रविवार, 18 दिसंबर 2016

170. पिताजी



प्रतिष्ठा
पिताजी ने अपने जीवन में पैसे ज्यादा नहीं कमाये, मगर जैसी प्रतिष्ठा उन्होंने गाँव-समाज में हासिल की, वैसा सम्मान बहुत कम लोगों को हासिल होता है। आज बरहरवा के किसी भी व्यक्ति से पूछकर देख लिया जाय (बीते आठ-दस वर्षों में जो पीढ़ी युवा हुई है, उन्हें छोड़कर), उक्त मंतव्य से वह अपनी सहमति जतायेगा।
पिताजी का नाम शुरु से ही बरहरवा के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों में शुमार रहा है।
अनुशासनप्रियता
पिताजी के जिस गुण का जिक्र लोग जरुर करेंगे, वह है- अनुशासनप्रियता। जीवन के हर क्षेत्र में वे अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। घर में हमसब उनके अनुशासन के सामने नतमस्तक तो रहते ही थे, मुहल्ले का भी हर आदमी उनके सामने अनुशासित हो जाता था।
उनकी 'आवाज' प्रसिद्ध थी। घर के सामने खड़े होकर वे आवाज लगाते थे और हमलोग कहीं भी खेल रहे हों- हमलोगों तक आवाज पहुँच जाती थी।
शाम को अक्सर छत पर घर की तथा अड़ोस-पड़ोस की कुछ महिलायें इकट्ठी हो जाया करती थीं- खासकर फिल्म का शो छूटने के समय- सिनेमा हॉल बगल में ही था- नीचे से पिताजी की एक आवाज में सब हड़बड़ा कर भागती थीं। कभी-कभी आँगन में किसी फेरीवाले के आने पर भी महिलायें इकट्ठी होती थीं, यह मजमा भी उनकी एक आवाज से छँट जाता था। पता चला कि दीदी की कई सहेलियाँ तो घर आते समय हिम्मत जुटा कर आती थीं कि पिताजी से सामना न हो!
गर्मियों की दुपहर हमलोग छुप-छुप कर बाहर भागते थे खेलने के लिए- मगर फिर भी उन्हें पता चल जाता था और उनकी 'पुकार' हमें वापस ले आती थी।
युवाओं के बीच लोकप्रियता
जो युवा सामाजिक-सांस्कृतिक-खेल-कूद से जुड़ी गतिविधियों में जरा भी रुचि रखते थे, उन सबके बीच पिताजी बहुत लोकप्रिय थे। नयी पीढ़ी वाले- यहाँ तक कि उनके नाती-पोते भी इसे ठीक से समझ नहीं पायेंगे, मगर जिनकी उम्र चालीस पार है, उनसे बात करने पर पता चलेगा कि बरहरवा के ज्यादातर युवा एक समय में पिताजी के भक्त हुआ करते थे- फिर चाहे वे बँगाली हों, या बिहारी। बँगाली युवक उन्हें "जगदीश दा" कहते थे और बिहारी युवक "जगदीश भैया"।
एक समय में, जब जाड़े के दस्तक के साथ ही बैडमिण्टन और वॉलीबॉल के कोर्ट गली-मुहल्लों में बनने लगते थे, तब युवक उनके पास आते थे- माप जानने के लिए। यहाँ तक क्रिकेट के मैदान की बारीकियों को जानने के लिए भी लोग आते थे उनके पास।
नाटक
यह कुछ ज्यादा ही पुरानी बात है। सत्तर के दशक में शायद देश के हर कस्बे में नाटक खेले जाते थे- बरहरवा भी इससे अछूता नहीं था। क्या हिन्दी, क्या बँगला- दोनों तरह के नाटकों में पिताजी ने हिस्सा लिया है। हाँ, भोजपुरी वे नहीं बोलते थे, इसलिए भोजपुरी नाटक खेलने वाले उन्हें आमंत्रित नहीं करते थे। वे पहले ही कह दिया करते थे कि उन्हें छोटा रोल चाहिए- बड़ा रोल करने से वे बचते थे।
दो नाटकों की याद मेरे मन में बसी हुई है।
एक बँगला नाटक में वे अपने बाल्यमित्र दिलीप साव के साथ सह-नायक थे। नाटक में दोनों एक ही नायिका से प्रेम कर रहे थे शायद। मैं बच्चा था- ठीक-ठीक समझा नहीं, मगर बाद में पता चला कि दर्शकों में बैठी माँ को कुछ बँगाली महिलायें छेड़ रही थीं कि ये (नाटक की नायिका) अगर घर आ गयी तो क्या कीजियेगा! दिलीप काकू की बात अलग थी- वे क्वांरे थे और आजीवन अविवाहित ही रहे।
"शाहजहाँ" बरहरवा का एक प्रसिद्ध नाटक रहा है- यह एक बड़ा और भव्य नाटक है। 1950 में इसे पहली बार खेला गया था। सम्भवतः स्व. जोगेन्द्र चौरासिया ने मुख्य भूमिका निभायी थी। पच्चीस साल बाद 1975 में इसे फिर खेला गया, तब शाहजहाँ की मुख्य भूमिका जोगेन्द्र चौरासिया के पुत्र जयप्रकाश चौरासिया ने निभायी। सम्भवतः निर्देशन भी उन्हीं का था। इसमें पिताजी ने एक छोटा रोल स्वीकार किया था- किरदार का नाम था- "दिलेर खाँ"। आज भी बरहरवा में बहुतों के दिलो-दिमाग में इस नाटक की याद ताजा होगी। बाकायदे टिकट लगाकर इस नाटक का मंचन किया गया था।
आज जयप्रकाश चौरासिया फेसबुक पर सक्रिय हैं। युवावस्था में बूढ़े शाहजहाँ के किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया था। वे चाहें, तो इस नाटक पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं। सांस्कृतिक गतिविधियों में संलग्न इन युवाओं की बाकायदे एक संस्था हुआ करती थी- "अभिनय भारती"।
इसके मुकाबले बँगालीपाड़ा की संस्था थी- "अभियात्री"। बेशक, दोनों में स्वस्थ प्रतियोगिता भी रही होगी- जानकार प्रकाश डाल सकते हैं। मेरे पिताजी दोनों तरफ लोकप्रिय थे- बँगालियों के बीच भी और बिहारियों या हिन्दीभाषियों के बीच भी। बँगलीपाड़ा में "सॉरेश दा"-जैसे युवा ऐसी टीम का नेतृत्व करते थे। दुर्भाग्य से, वे युवावस्था में ही चल बसे। उनके समय में न केवल ऊँचे दर्जे के नाटक (जैसे कि "मानुष नामे मानुष") बरहरवा में खेले जाते थे, बल्कि "कजंगल" नाम से द्विभाषी त्रैमासिक पत्रिका भी बरहरवा से छपती थी।
(प्रसंगवश, पश्चिम में साहेबगंज के "तेलियागढ़ी" से पूरब में गंगा-गुमानी संगम तक का क्षेत्र, जो उत्तर में गंगा और दक्षिण में "राजमहल की पहाड़ियों" से घिरा है- महाभारत में "कजंगल" नाम से जाना जाता था। बरहरवा इसी क्षेत्र में है।)
हैण्डराइटिंग
पिताजी की हैण्डराइटिंग बहुत सुन्दर थी। उनकी हम पाँच सन्तानों में से किसी को यह गुण नहीं मिला! उनकी अँग्रेजी लिखावट वैसी थी, जिसे cursive कहते हैं शायद। बँगला लिखावट भी सुन्दर थी और हिन्दी लिखावट की तो उन्होंने अपनी एक खास शैली ही विकसित कर ली थी!
बैडमिण्टन
लगता है, पिताजी बैडमिण्टन के दीवाने थे। जहाँ तक मुझे लगता है, इस खेल को दो शैलियों में खेला जाता है। पहली, "कलात्मक" शैली, जिसमें हार-जीत ज्यादा मायने नहीं रखता, शिष्टाचार का पालन किया जाता है और बहुत जरुरत पड़ने पर ही "स्मैश" का प्रयोग किया जाता है, अन्यथा "प्लेसिंग" से विरोधी पक्ष को छकाया जाता है। दूसरी शैली को "आक्रामक" कहा जा सकता है। इसमें "स्मैश" का भरपूर इस्तेमाल होता है, उसी अनुपात में शिष्टाचार कम होता है और जीतना ही इसका मकसद होता है। पिताजी कलात्मक बैडमिण्टन खेलते थे- ज्यादा स्मैश वाले खेल को वे "बॉमबार्डिंग" कहते थे। बैडमिण्टन के इन दीवानों ने अपनी संस्था का नाम रख रखा था- BBC, यानि "बरहरवा बुलेट क्लब"! (आज के युवा भी चाहें, तो इस नाम का उपयोग कर सकते हैं!)
मुझे याद है कि एक बार किसी दूसरे शहर के साथ प्रतियोगिता थी, तब बरहरवा की ओर से जिस युवा खिलाड़ी को चुना गया था खेलने के लिए, वे थे सनत कुमार। आज वे ज्यादातर समय "चौलिया" गाँव में ही रहते हैं- खेती-बाड़ी की देख-भाल के लिए। ...और उनके पार्टनर के रुप में पिताजी खेले थे, जबकि उनकी उम्र उस वक्त 45 से 50 के बीच रही होगी। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि बैडमिण्टन के वे कितने अच्छे खिलाड़ी रहे होंगे।
बाद के दिनों में पता चला कि पिताजी युवावस्था से ही बैडमिण्टन खेलते थे और कोलकाता से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करके आने के बाद भी इस खेल में रमे रहते थे- बेशक, यह जाड़े का ही खेल है। ..और तब दादाजी बहुत नाराज होते थे। माँ से कहते थे- रात आयेगा तो खाना मत देना उसको!
ब्रिज
पिताजी "ब्रिज" खेलने के भी शौकीन थे। जाड़े की शाम दस-बारह की संख्या में मित्र-मण्डली जुटती थी उनकी। सभी स्वेटर और शॉल में लिपटे होते थे। काफी देर तक वे लोग ब्रिज खेलते थे। हालाँकि इसे पसन्द नहीं किया जाता था- खासकर, माँ को यह बिलकुल पसन्द नहीं था।   
जेण्टलमैन  
एक जमाने में पिताजी की छवि जेण्टलमैन की हुआ करती थी। शाम रेलवे कैण्टीन में बरहरवा के दिग्गज और गणमान्य लोगों का जो जमावड़ा होता था- मुझे याद है- पिताजी उसमें बाकायदे सूट पहन कर जाते थे- बेशक, जाड़े में। हाँ, टाई के स्थान पर वे मफलर का इस्तेमाल करते थे, जिसमें फूल की डिजाइन की कढ़ाई थी, वह सामने से झलकती थी।
एवरग्रीन
पिताजी की एक और छवि थी- एवरग्रीन की, जिस पर उम्र का प्रभाव न हो। यह छवि मेरे ननिहाल- राजमहल- में खासतौर पर प्रसिद्ध थी। बुआजी भी बताती थीं कि तुम्हारे फूफाजी उन्हें एवरग्रीन कहते हैं!
पिताजी मॉर्निंग वाक के शौकीन थे और रोज सुबह टहलते हुए बिन्दुवासिनी पहाड़ तक जाते थे। कभी-कभी वे साइकिल से भी जाते थे। कभी बड़े भाई और कभी मैं भी साथ जाता था। सम्भवतः मॉर्निंग वाक की इस आदत ने उनको लम्बे समय तक एवरग्रीन बनाये रखा। इसके अलावे, खान-पान के मामले में तो वे खैर, अनुशासन का पालन करते ही थे।
बचपन में कुछ समय तक हमलोगों ने उनको 'सर्वांगासन' करते हुए देखा था, बाद में पता नहीं क्यों, उन्होंने बिलकुल छोड़ दिया। काश, इस आसन को करना उन्होंने नहीं छोड़ा होता... तो अभी वे कई साल और हमारे बीच रहते!
उन्हें शुगर, प्रेशर-जैसी बीमारियाँ नहीं थीं, कभी कोई बड़ा ईलाज उन्हें नहीं कराना पड़ा और मुझे ऐसा लगता है कि अभी और कुछ साल हमारे बीच रहना था...
आध्यात्म
जैसा कि पिताजी की बातों से ही पता चला था, शुरु-शुरु में वे नास्तिक ही थे। रोज सुबह बिन्दुवासिनी मन्दिर (पहाड़ी पर अवस्थित) वे जाते जरुर थे, वहाँ के सन्त "पहाड़ी बाबा" के सान्निध्य बैठते जरुर थे, मगर विचारों से वे नास्तिक ही थे। कभी-कभी वे और दिलीप काकू मिलकर पहाड़ी बाबा से तर्क-वितर्क भी करते थे। जरुर पहाड़ी बाबा मन-ही-मन हँसते होंगे.... ।
बाद के दिनों में पता नहीं क्या हुआ, वे आध्यात्मिक हो गये। उन्हें इस बात का अफसोस रहा कि जब तक उन्होंने अपने-आप को पहचानना शुरु किया, तब तक पहाड़ी बाबा बरहरवा छोड़कर (वे कुल 12 साल यहाँ रहे- 1960 से '72 तक। उनपर कुछ जानकारी मेरे एक दूसरे ब्लॉग पर मिल जायेगी) जयपुर जा चुके थे। खैर, बिना गुरु के ही पुस्तकें पढ़कर उन्होंने काफी ज्ञान हासिल किया।
होम्योपैथ
एक होम्योपैथ डॉक्टर के रुप में मेरे दादाजी- डॉ. जोगेन्द्र नाथ दास- जितने प्रसिद्ध थे, पिताजी की प्रसिद्धी उनसे कोई कम नहीं थी, मगर दादाजी ने इस पेशे से पैसे भी कमाये थे, जो पिताजी नहीं कर सके- अपने उदार स्वभाव के कारण। दोनों ने ही बहुत-से लोगों की असाध्य, पुरानी एवं जटिल बीमारियों का इलाज किया। पिताजी "शियाटिका" के इलाज के लिए प्रसिद्ध थे।
दादाजी "जोगेन डॉक्टर" या "चौलिया डॉक्टर" के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने बरहरवा में अच्छी-खासी जमीन खरीद कर यहाँ घर बनाया। कुछ जमीन उम्होंने चौलिया और उसके आस-पास के गाँवों में भी खरीदी। वह जमाना और था। मेरे पिताजी और चाचाजी- दोनों ने किसी सरकारी नौकरी में जाकर घर से बाहर रहते हुए जीवन बिताना पसन्द नहीं किया। पिताजी होम्योपैथ के पेशे में ही रहे और चाचाजी अपने द्वारा स्थापित पाठशाला के प्रधानाध्यापक ही बन कर रह गये। दोनों अपनी-अपनी जगह सही थे। हाँ, कुछ जमीन बिकी, जिन्हें दादाजी ने खरीदा था, मगर दोनों ने पैसे को कभी ज्यादा महत्व नहीं दिया- दोनों के लिए परिवार-समाज के साथ रहना और अपने-अपने उसूलों पर जीना ज्यादा महत्वपूर्ण रहा।
"भात-घूम"
बँगला में दोपहर की नीन्द को "भात घूम" कहते हैं, यानि भात खाने के बाद एक नीन्द लेना। बँगालियों को यह बहुत प्रिय होता है- इसके लिए दोपहर में वे अपनी दूकानें बन्द रखते हैं। पिताजी को भी यह बहुत प्रिय था। दोपहर खाना खाने के बाद वे एक-डेढ़ घण्टा सोते थे- इस समय उन्हें जगाने का साहस कोई नहीं करता था।
"खोकन"
जैसे बिहारी समाज में बच्चे को बाबु या नुनु कहते हैं और बहुतों का नाम ही यही पड़ जाता है, वैसे ही बँगला में बच्चे को खोका या खोकन कहते हैं और बहुतों का नाम ही यही पड़ जाता है। तो पिताजी का नाम भी खोकन था। हमने हमेशा देखा, चाचाजी "खोकोन" कहकर ही पिताजी को बुलाते थे।
सपना
यह सही है कि पिताजी ने हमेशा आरामदायक जीवन पसन्द किया, मगर कोलकाता में रहकर पढ़ाई के दौरान एक बार वे वायु सेना में भर्ती की लाईन या शायद रैली में शामिल हुए थे। उम्र थोड़ी ज्यादा होने के कारण वे भर्ती नहीं हो पाये थे। वायु सेना में भर्ती होने के बाद जब मैं पहली छुट्टी में घर आया, तब पिताजी ने यह बात मुझे बतायी थी। पिताजी यह भी चाहते थे कि उनका एक बेटा बैंक में जाये, मगर दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो पाया। अन्ततः मैं ही वायु सेना में बीस साल बिताकर जब लौटा, तो तीन साल बाद बैंक में शामिल हुआ। यानि पिताजी की दोनों इच्छाओं की पूर्ति मेरे माध्यम से ही हुई, और इसे मैं उनका आशीर्वाद और अपना सौभाग्य समझता हूँ।
वंशावली
पिताजी ने अपने पूर्वजों के नाम कायदे से एक कागज पर लिख रखा था। 2007 में मेरी नजर इस पर पड़ी, तो मैंने इसे कम्प्युटर पर उतारा और इसका (A3 आकार में- तब मेरे पास A3 प्रिण्टर था) प्रिण्ट निकाल कर रिशेदारों के बीच बाँट दिया। अब करीब दस साल होने जा रहे हैं- इसे अपडेट करना होगा- कई नाम इसमें जोड़ने होंगे। 
(वंशावली का jpg फार्मेट यहाँ है.)
जन्मतिथि
एक बार मैंने होम्योपैथी का सॉफ्टवेयर कम्प्युटर में लोड किया था। सॉफ्टवेयर ने डॉक्टर की जन्मतिथि और रजिस्ट्रेशन नम्बर माँगा था और पिताजी से पूछकर मैंने यह तिथि डाल भी दी थी, मगर अफसोस कि हमने इस तारीख को कहीं लिख कर नहीं रखा। अब अगर उनका कोई सर्टिफिकेट कहीं मिल जाय, तो ठीक है, वर्ना पता नहीं, हम कब तक उनकी जन्मतिथि नहीं जान पायेंगे।
***

विस्तार से कुछ लिखने लायक धैर्य मुझमें कभी नहीं रहा। अभी जो बातें ध्यान में आयीं, उन्हें लिखा, बाकी फिर कभी... 
***** 
पुनश्च: 22 जनवरी 2017

पिताजी से जुड़ी दो तस्वीरें मैं जोड़ रहा हूँ। पहली तब की है, जब पिताजी बरहरवा उच्च विद्यालय में दसवीं कक्षा के छात्र थे। तस्वीर 1950 की है। इसमें पिताजी शिक्षकों वाली पंक्ति में बाँयी ओर बैठे हुए हैं। कुछ अरसा पहले फेसबुक पर मैंने इस तस्वीर को पोस्ट किया था।

***
दूसरी तस्वीर को आज ही मैंने एक पुराने निगेटिव से बनाया। तस्वीर में पिताजी बाँयी ओर खड़े हैं (गले में टाई के स्थान पर मफलर है- जैसा कि मैंने आलेख में जिक्र किया है); बीच में खड़े हैं ‘काली काकू’, अर्थात् श्री काली प्रसाद गुप्ता (टोपी पहने हुए)- वे “काली दारोगा” के नाम से जाने जाते हैं, एक्साईज विभाग से सेवानिवृत्त हैं; उनके बाद, यानि दाहिने ओर जो सज्जन खड़े हैं, उनका नाम अभी मैं नहीं बता पा रहा हूँ (किसी से पूछना पड़ेगा) वे सम्भवतः ब्लॉक में अधिकारी थे।
जो बैठे हुए हैं, उनमें पहले हैं- स्वर्गीय महावीर बोहरा, बरहरवा के एक साहित्यकार एवं साहित्यरसिक सज्जन; और दूसरे हैं, श्री हीरालाल साहा, मलेरिया विभाग में अधिकारी थे।
तस्वीर 14 दिसम्बर 1975 की है, जैसा कि “सरिता स्टुडियो” के लिफाफ पर लिखा हुआ है।

***

पुनश्च (20 मई 2020)
आज एक और पुरानी तस्वीर जोड़ रहा हूँ। तस्वीर साफ नहीं है, क्योंकि यह तस्वीर की "जेरॉक्स" कॉपी है। तस्वीर पिताजी के पास ही थी। एकबार उन्होंने मुझे दिया कि इससे कुछ और तस्वीरें बनवा लाओ बड़े साईज में, कुछ दोस्तों को देना है। बगल के 'रूपश्री स्टुडियो' की मदद से तस्वीरें बन भी गयीं और बँट भी गयीं। मैंने कोई कॉपी नहीं रखीं। 'ओरोजिनल' तस्वीर भी कहाँ गयी, पता नहीं। बहुत बाद में एक डिब्बे में यह "जेरॉक्स" कॉपी मिली- मैंने यूँ ही जेरॉक्स कर लिया था।
पिताजी क्रमांक- 1 में हैं।

***   



11 टिप्‍पणियां:

  1. इस आलेख को फेसबुक पर भी पोस्ट किया था हमने. वहाँ जो टिप्पणियाँ आयी हैं, उन्हें आभार सहित यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ.

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  2. Jaiprakash Chaurasia:
    Dr. Saheb mere Bahut karib the abhinay bharti ke ek mazboot astamv...Jism ki maut koi maut nhi hoti ,Jism mar jane se paigam nhi Mara karte ...SHARDHANJALI
    18 दिसंबर 2016 को 03:07 अपराह्न बजे

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  3. Bishnu Mandholia:
    बचपन से जिनको देखा अतं समय में नहीं देख सका
    18 दिसंबर 2016 को 03:52 अपराह्न बजे

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  4. Rajesh Jain:
    Bhaw purna sradhanjali.
    19 दिसंबर 2016 को 12:57 अपराह्न बजे

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  5. Rishi Gupta Rishi Mission:
    Jagdish bhaiya ek nek insan then amr rhenge
    14 फ़रवरी को 12:12 अपराह्न बजे

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  6. Jaiprakash Chaurasia:

    Kala sanskiriti unke Rom Rom me basa tha. Anushasan me rahne k liye log Unse sikhte the ..badminton ke deevano ,mai unke sath Kugel chuka hu ...Barharwa ke ek sashakt Hastakshar KO mera lakh lakh NAMAN ...shahjaha ka diler Khan ka hi mar nhi sakta ..mar kar v aadmi ka murder mar sakta nhi ,kisi mussabir ka shahkar mar sakta nhi ,malum ho gaya hai duniya KO Dr. J.c. das ki maut se phan agar jinda hai to phankar mar sakta nhi ...

    18 दिसंबर 2016 को 03:32 अपराह्न बजे

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  7. Kumar Suman Gupta:

    बचपन मे हम दोस्तों का एक ग्रुप हुआ करता था, और उसमें मै, ओमु, मनीष, सन्नी भैया, मुन्ना, मीतु हुआ करते थे, और हमारे साथ उनकी बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं, क्योंकि हमारे खेलने का अधिकतर समय आपके ही घर मे बीता करता था, तो जब भी हम ज्यादा धमा चौकड़ी करने लगते तब वो एक चिर परिचित अंदाज में आवाज लगाते, ओमुऽऽऽऽऽऽ... और ये सुनकर हम शांत हो जाते, और फिर उनकी नकल कर करके खुब हँसते.... बचपन मे हम दोस्तो को अपने साथ पिकनिक पर ले जाते, आज भी वो सब याद है, अब ये सब सिर्फ यादें है, जब भी तबीयत खराब होती थी, सबसे पहले जेठु के पास जाते थे, अब ये एक कमी खलेगी..

    18 दिसंबर 2016 को 05:16 अपराह्न बजे

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  8. Sanjay Routh:

    Mamaji per lekh accha laga. Sare pariwar ko bharan poshan wahi kartey theyy. Unka discipline bahut strict tha. Bachpan mei dekh chuka hu. Barharwa matlab Dr J C Das aur unkey father. Doctor honey ke nate ,bahut garibo ki sewa ki. Mamaji aap jaha bhi bhagwan sada aapki madad karege. RIP.

    18 दिसंबर 2016 को 05:47 अपराह्न बजे

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  9. Jyotish Prasad (Ajit Jethwa और 36 अन्य लोगों के मित्र):

    Dr J C Das has been a figure of distinction in the society of Barharws.Who can forget his courtesy, his regards for educated individuals ,his sportsman spirit, sense of humour and his majestic walk? He was a gentleman with a difference in the company of his class.Barhrwa will always miss his sober smiling face.I shall always cherish his memory.May God give him a place of distinction in Paradise! Duniya se jaane waale jaane chale jaate hain kahan?

    18 दिसंबर 2016 को 09:25 अपराह्न बजे

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  10. Rajni Gupta (Anshu Shekhar और 5 अन्य लोगों के मित्र)

    Sach me hmari bachpan ki Msti wali yaadon me unka bahut ahem hissa rha

    Mujhse toh sbse jyada unki ye baat aati hai....Jaise hi bahr k gate khulne ki aawaz aati toh dadaji puchte Kon......H
    ...........?????????????? Phir hum shire aawaz me salike se apne Naam btakr Andr entry krte the.

    2 · 19 जनवरी को 12:54 पूर्वाह्न बजे

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