सच पूछिये, तो अपने इलाके से जुड़े दो-तीन
विषयों पर पिछले एक-डेढ़ साल से कुछ लिखने की मैं बस 'सोच' ही रहा हूँ, जैसे- 1. राजमहल की पहाड़ियों के जिन क्षेत्रों में अन्धाधुन्ध
खनन हो रहा है, उनकी भौगोलिक स्थितियों के बारे में, 2. महाराजपुर से सकरीगली के
बीच की परित्यक्त रेल-पटरियों के बारे में, 3. करमटोला स्टेशन के पास पहाड़ी पर बने
'तेलियागढ़ी' किले के खण्डहरों के बारे में, इत्यादि; पर हमेशा मैं इन्हें टालता
रहा हूँ। आज महाराजपुर-सकरीगली की परित्यक्त रेल-पटरियों पर लिखने का मुहुर्त निकल
ही आया है।
सोचा तो था कि कभी
महाराजपुर स्टेशन पर उतरकर पैदल इस परित्यक्त रेल-ट्रैक पर चलते हुए सकरीगली तक
जाऊँगा, फोटोग्राफी करूँगा और तब कुछ लिखूँगा, मगर आज ऐसा कुछ किये बिना ही लिख
रहा हूँ। हाँ, बीती बरसात में ट्रेन से कुछ चित्र जरुर खींचे थे यहाँ के।
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महाराजपुर से सकरीगली
के बीच की दूरी कितनी होगी- ठीक से नहीं पता, पर 5 किलोमीटर के लगभग होगी। इस पाँच
में दो-एक किलोमीटर की दूरी पूर्व रेलवे का एक सरदर्द है। आज से नहीं, हम अपने
बचपन से सुनते आये हैं कि इस साल बरसात में गंगा का पानी रेल-लाईन के एकदम किनारे
आ गया है! यानि पिछले चालीस वर्षों से यह सरदर्द बना हुआ है- हो सकता है, उसके भी
पहले से ही हो। हर साल बरसात में किनारे को काटते हुए गंगा रेल-पटरियों के किनारे
आ जाती है और इसी के साथ रेलवे की ओर से रेल-पटरियों को बचाने के लिए युद्धस्तर पर
कार्रवाई शुरु हो जाती है। पहले हजारों का बजट होता होगा, फिर लाखों का हुआ होगा और
पिछले साल (2014) जैसा काम होते हुए मैंने देखा, उससे लगता है कि अब बजट करोड़ों
में पहुँच गया होगा।
पुराने लोग बताते हैं
कि गंगा पहले दूर थी- रेल-पटरियों और गंगा के बीच पहले बस्ती थी। इस लिहाज से देखा
जाय, तो इसमें इंजीनियरों की कोई गलती नहीं है। मगर क्या वाकई इंजीनियरों को यह
पता नहीं होता है कि कोई भी नदी सौ-पचास साल में स्थान बदल भी सकती है- खासकर
वहाँ, जहाँ वह घूमती है? ऐसे में, पटरियों को गंगा से और भी दूर-
राजमहल की पहाड़ियों की तरफ क्यों नहीं बिछाया गया?
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ट्रेन में आते-जाते
हुए राजमहल की पहाड़ियों की तरफ जंगलों में रेलवे के दो पुराने पुलों को देखकर मेरे
मन में उत्सुकता जागी कि ये पुल वहाँ क्या कर रहे हैं? ध्यान से देखने पर पता चला
कि महाराजपुर से सकरीगली के बीच की बिछी ये ही पुरानी रेल-पटरियाँ है, जो अब
परित्यक्त हैं। वैसे, ज्यादातर हिस्सों से पटरियों को उखाड़ भी लिया गया है, मगर यह
रेल-ट्रैक है/था- यह कोई भी समझ सकता है। (पटरियों को रेलवे ने उखड़वाया है, या
तस्करों ने गायब किया है- यह नहीं पता।) ये पटरियाँ आज भी गंगा से पाँच-सात सौ
मीटर दूर- पहाड़ियों की तलहटी पर बिछी हैं। पुलों को देखकर साफ लगता है कि यही
पुरानी रेल-लाईन रही होगी। आज जिन पटरियों पर ट्रेन चलती है, वे बाद में बनी होंगी।
बता हूँ कि हमारे
इलाके की यह रेल-लाईन उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में बिछी थी। यानि तब के
अँग्रेज इंजीनियरों ने यह अनुमान लगा लिया होगा कि घुमाव के कारण गंगा सौ-पचास
वर्षों में पटरी की तरफ खिसक सकती है- इसलिए उनलोगों ने तब पटरियों को पहाड़ियों की
तरफ बिछाया होगा।
आजादी के बाद हमारे भारतीय
इंजीनियरों ने उन अँग्रेज इंजीनियरों को गालियाँ दी होंगी कि पटरियों को सीधी न
बिछाकर पहाड़ियों की तरफ क्यों बिछाया? ...और उनलोगों ने एक सीधी पटरी बिछाकर पहले
वाली को परित्यक्त घोषित कर दिया होगा।
मगर बाद के वर्षों
में अँग्रेज इंजीनियरों का अनुमान ही सही साबित हो गया होगा। गंगा यहाँ घूमती है,
सो हर साल बरसात में किनारे को काटती हुई वह इस तरफ बढ़ गयी है। जैसा कि मैंने
बताया- पिछले चालीस वर्षों से ऐसा हो रहा है कि बरसात में गंगा पटरियों के एकदम पास आ
जाती है।
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मैं सोच रहा हूँ कि
जब गंगा हर साल रेल-पटरियों के पास आ जाती है, तो उन पुरानी/परित्यक्त पटरियों को
ही (मरम्मत करके) फिर से चालू क्यों नहीं किया जाता, जो गंगा से दूर बिलकुल
सुरक्षित बनी हुई हैं? कहीं ऐसा तो नहीं, कि हर साल मिलने वाले लाखों-करोड़ों के
बजट (कटावरोधी कार्यों के लिए) से हाथ धोने के भय से पुरानी पटरियों को चालू नहीं
किया जा रहा है?
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पुनश्च: लिखा तो बीते रविवार (5/4) मगर उस रोज नेट की स्पीड की मेहरबानी से पोस्ट नहीं कर पाया था.
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