पिछले- नवान्न वाले पोस्ट में- नये चावल का जिक्र आया था। यह नया चावल हमारे घर में चौलिया गाँव से आता है। यह
हमारा पैतृक गाँव है। बरहरवा से कुछ ही किलोमीटर दूर है।
आज
क्या मन में आया, हम सबने चौलिया चलने का कार्यक्रम बना लिया।
एक जुगाड़ किराये पर लेकर हम रवाना भी हो
गये। 'जुगाड़' को यहाँ 'भुटभुटिया' कहते हैं।
बरहरवा से बाहर निकलते ही सुन्दर तालाब
दीखने लगे।
एक खलिहान में धान की पिटाई का कार्य चल रहा था- पिटाई हो
चुकी थी- उसके बाद का कार्य चल रहा था। एक व्यक्ति एक परात-जैसे सूफ में पिटा हुआ
धान बीच में लहरा कर फेंक रहा था और उस ढेर के चारों तरफ खड़ी 7-8 महिलायें तुरन्त
सूफ से हवा करके धान में से 'पतान' (धान के साथ आ जाने वाले 'पुआल' और बिना चावल
वाले धान को) को उड़ाकर अलग कर रही थीं। ऐसा करते हुए वे दो-तीन कदम चलते भी थे- यानि धान की ढेर के चारों तरफ वे परिक्रमा कर रहे थे। थोड़ी धूल भी साथ में उड़ती थी- इसलिए
महिलाओं ने आधे चेहरे को कपड़े से ढाँप रखा था- ताकि नाक में धूल न जाये। दृश्य
जबर्दस्त था- तस्वीर खींचने के लिहाज से- खासकर, विडियोग्राफी के लिहाज से। मगर भुटभुटिया रुकवाकर मैं फोटो खींचने
लगूँ- यह एक अटपटी बात होती। खैर। किसी जमाने में हमारे घर के आस-पास ही तीन-चार
खलिहान बना करते थे- बचपन में हमलोग बैठकर पूरी प्रक्रिया देखते थे। अब कहाँ?
सड़क फिर से निर्माणाधीन है- इस बार चौड़ी सड़क बन रही है।
हिचकोले खाते हुए हम आधे घण्टे में चौलिया पहुँच गये।
करीब तीन घण्टे
गाँव में बिताकर, परिचितों, रिश्तेदारों, भागीदारों से मिलकर और चाची के यहाँ खाना
खाकर हमलोग करीब साढ़े तीन बजे गाँव से निकले। (इस ब्लॉग के 2रे पोस्ट 'चरक मेला'
तथा 5वे पोस्ट 'टप्परगाड़ी' में चाची का जिक्र है।)
कच्ची सड़क छोड़कर हम खेतों से चलते हुए रेलवे के 'लूप लिंक
केबिन' की ओर बढ़ गये। खेतों के ज्यादातर धान कट चुके थे। यहाँ रेल ट्रैक का एक लूप
बनता है- यह लूप बरहरवा से फरक्का और पाकुड़ जाने वाले रेल ट्रैक को जोड़ता है। इस
केबिन पर कुछ सवारी रेलगाड़ियाँ रुकती हैं- हमें 'अप बरौनी पैसेन्जर' पकड़नी थी।
चालीस मिनट चलकर हम केबिन पहुँचे। यहाँ भी करीब चालिस मिनट
इन्तजार करने के बाद ट्रेन आयी। कुल पाँच मिनट की यात्रा के बाद हम बरहरवा में थे!
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