बचपन में
रेलगाड़ी में बैठकर साहेबगंज जाते वक्त हमलोग अक्सर बाईं तरफ पहाड़ियों को निहारा
करते थे। छोटे-छोटे धान के खेत, खजूर के पेड़ों की बेतरतीब कतारें,
छोटे-बड़े मैदान, ताल-तलैये, छोटे-छोटे स्टेशन, सब अच्छे लगते थे। साहेबगंज से ठीक
पहले सकरीगली में पहाड़ की एक चोटी गर्व से सिर उठाये रेलयात्रियों का स्वागत किया
करती थी।
ट्रेन से पहाड़ियों को निहारने
की आदत मेरी अब भी बनी हुई है- खासकर, बरसात में।
मगर अब एक अन्तर आ गया है- एक
टीस-सी उठती है मन में। ऐसा लगता है किसी ने विशाल उस्तरे से पहाड़ियों के सीने को
छलनी-छलनी कर दिया है! हर जगह पत्थरों के खदान, हर जगह क्रशर, हर जगह पत्थर
(बोल्डर, गिट्टी, डस्ट, इत्यादि के रुप में) से लदे ट्रकों की कतारें... चौबीसों
घण्टे, सातों दिन, बारहों महीने...!
और सकरीगली की वह चोटी? उसका
तो सर ही कट गया है! पत्थर खोदने वालों ने उस चोटी का ज्यादातर हिस्सा खा लिया है।
अब वह चोटी रेलयात्रियों का स्वागत नहीं करती, बल्कि रोते-सिसकते हुए अपना दर्द
बयां करती है कि देखो, मेरी क्या दुर्गति हो गयी है! वह सावधान भी करती है- चेत
जाओ, वर्ना मिर्जाचौकी (जहाँ से झारखण्ड राज्य की सीमा तथा राजमहल की पहाड़ियों की
शृंखला शुरु होती है) से लेकर पाकुड़ तक हर पहाड़ की यही दुर्गति होगी!
सकरीगली का यह 'गदवा पहाड़' अब
'मुड़कटवा' (सिरकटा) पहाड़ कहलाने लगा है- यह "लैण्डमार्क" बन गया है- इस
इलाके में अन्धाधुन्ध पत्थर खनन का।
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मिर्जाचौकी से पाकुड़ तक का
क्षेत्र करीब 100 किलोमीटर लम्बा है। मिर्जाचौकी से बाकुडीह तक, यानि करीब 70
किलोमीटर तक, रेलपथ व सड़क पहाड़ियों के साथ-साथ चलती हैं। इसलिए यहाँ ट्रेन या गाड़ी
से गुजरते वक्त खनन व्यवसाय का थोड़ा-बहुत अन्दाज लग जाता है। मगर बाकुडीह के बाद पहाड़ियाँ
रेलपथ व सड़क से दूर हो जाती हैं और खनन कितने बड़े पैमाने पर होता है- इसका अनुमान
पहाड़ों की ओर गये बिना नहीं लगता। इन इलाकों में बड़े पैमाने पर अत्याधुनिक मशीनों
से दिन-रात खनन होता है। पहाड़ों से जानवर तो कब के गायब हो चुके हैं अब खदानों के
आस-पास नगर बसने लगे हैं और रातभर काम होने लगा है, इसलिए अब शायद पंछी भी न रहें
इन पहाड़ों में।
पहाड़ों के अलावे जमीन के नीचे
से भी पत्थर निकाले जाते हैं- तालाब-जैसी खुदाई करके- यह सिलसिला पश्चिम बंगाल के
पड़ोसी जिले बीरभूम तक चलता है। कहा जा रहा है कि चूँकि इन तालाबों में काफी गहरी
बोरिंग करके विस्फोट किये जाते हैं, इसलिए निकट भविष्य में इस इलाके का भूजल स्तर
नीचे जाने वाला है!
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किसी के पास कोई आँकड़ा उपलब्ध
नहीं होगा। बस यूँ समझ लीजिये कि करीब 1,000 खदानें और 10,000 क्रशर यहाँ होंगे!
प्रतिदिन 10,000 ट्रक तो यहाँ से पत्थर लेकर निकलते ही होंगे। दिन में जितने ट्रक
आपको दीखेंगे, उससे 10-20-30 गुना ज्यादा ट्रक रात में निकलते होंगे। ज्यादातर
खदान गैर-कानूनी हैं। जो कानूनी हैं, वे अपने रकबे से कईगुना ज्यादा रकबे में
खुदाई करते हैं। एक विस्फोट की अनुमति पर 50 विस्फोट यहाँ किये जाते होंगे! क्रशर
की धूल आस-पास के लोगों के स्वास्थ्य के साथ-साथ आस-पास की जमीन को भी नुकसान
पहुँचाती है। पर्यावरण के नियमों की हर कदम पर धज्जियाँ उड़ायी जाती है।
पहले 6 पहियों के ट्रक चलते
थे- अब 10 से कम पहियों वाले ट्रक दीखते ही नहीं हैं। 100 किलोमीटर के इस इलाके के
हर गाँव, हर कस्बे, हर शहर की सड़कों को कबाड़ बना देते हैं ये ट्रक। सड़कें बनती हैं
18 टन तक वजनी गाड़ियों के लिए और ये ट्रक 36 ट्न वजनी होते हैं! (बाद में पता चला, इन ट्रकों में 40 टन से ज्यादा लोड होता है!) कहने को ऐसा नियम
है कि इन भारी वाहनों को दिन के वक्त बाजारों से नहीं गुजरना होता है- मगर सुबह से
शाम तक हर बाजार की सड़कों को ये जाम करते रहते हैं। दिन के मुकाबले रात में इन
ट्रकों की संख्या 20-30 गुना तो बढ़ ही जाती होगी।
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जहाँ तक मालगाड़ियों की बात
है, हफ्ते में सैकड़ों 'रेक' इस इलाके से निकलती होंगी। शायद "पाकुड़
स्टोन" का नाम आपने भी सुना हो- यहाँ के पत्थर को बहुत ही उम्दा किस्म का
पत्थर माना जाता है- बाँध, सड़क, मकान, इत्यादि के निर्माण के लिए सर्वथा उपयुक्त।
प्रसंगवश- अँग्रेजों ने तीसरी
(या शायद दूसरी) रेल लाईन इसी साहेबगंज रेल खण्ड के रुप में बिछाई थी- 1863 में।
उनका मकसद शायद इन पत्थरों का दोहन ही था। क्योंकि बहुत-सी ऐसी पुरानी पटरियाँ
हैं, जो इन इलाकों में पहाड़ियों के अन्दर दूर तक जाती हैं। कुछेक पटरियों का पिछले
कुछ वर्षों से फिर से उपयोग किया जाने लगा है, मगर ज्यादातर को उखाड़ डाला गया है-
अब यह रेलवे ने उखड़वाया है या तस्करों ने, यह नहीं पता।
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बिहार में पत्थर खनन पर रोक
लग गयी है और बंगाल में भी कुछ कड़ाई की जा रही है शायद। इसलिए खनन का पैमाना यहाँ झारखण्ड
में दो-तीन गुना बढ़ गया है। झारखण्ड जब से बना है, यहाँ शासन, प्रशासन और पुलिस
किस चिड़िया का नाम है- लोग भूल ही गये हैं- हर तरफ अराजकता... जिसका जहाँ मन कर
रहा है, पहाड़ खोदो, पत्थर निकालो... बस जो माँगे, उसे हफ्ता पहुँचाते रहो....! लूट
लो झारखण्ड को! फिर मौका मिले, न मिले।
अब प्रायः हर खदान
"फुल्ली ऑटोमेटिक" हो गया है, हर जगह बड़े-बड़े जे.सी.बी. और जेनरेटर चलने
लगे हैं।
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जिन रास्तों से ये पत्थर लदे
ट्रक गुजरते हैं उन रास्तों में पड़ने वाली पुलिस चौकियों के थानेदार की पोस्ट
कितने रुपये में "नीलाम" होती है, इसका हम और आप अनुमान भी नहीं लगा
सकते! यकीनन, अनुमान नहीं लगा सकते!! कारण यह है कि ये ट्रक अपनी क्षमता से दो-ढाई
गुना ज्यादा लोड लेकर चलते हैं और बहुत-सी गाड़ियों के 'कागज-पत्तर' ठीक नहीं होते हैं।
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ऐसा नहीं है कि इस समस्या का
कोई इलाज नहीं है। इलाज सीधा-सादा है कि आज से 25-30 साल पहले जिस तरह से खनन होता
था, उसी तरीके को फिर से अपना लिया जाय- न बड़े ट्रक चलें, न जेसीबी और पोर्कलेन, न
क्रशर पूरी तरह से ऑटोमेटिक हों और न ही शाम ढलने के बाद काम हो!
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साथियों, एक अनुरोध है।
आगे से जब भी आपका ध्यान
रेल-पटरियों के किनारे बिछे पत्थरों पर जाये, या जब भी आप किसी सुपर हाई-वे
गुजरें, या कोई विशाल पुल या बाँध देखें, या अपने ही मकान की छत की ढलाई करवायें,
तो एकबार कृपया याद जरूर कर लें कि ये पत्थर राजमहल की (या किन्हीं और) पहाड़ियों
से निकलकर आये हैं और इन्हें निकालने के लिए इन पहाड़ियों को तिल-तिल कर मारा जा
रहा है... इन पहाड़ियाँ का सीना क्षत-विक्षत, लहू-लुहान हो रहा है... ये मर रही
हैं... विश्वास कीजिये- ये मर रही हैं...
यह भ्रम है कि पहाड़ नहीं
मरेंगे और थोड़ा-सा पत्थर निकाल लेने से इनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। हमारे पूर्वज पहले
ही कह गये हैं-
"शश्वदुपभोगे गिरिरपि
नश्यति।"
अर्थात्, निरन्तर उपभोग करने
से पर्वत भी समाप्त हो जाता है। (गद्यचिन्तामणि 1/3)।
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अमर शहीद कैप्टन विक्रम 'शेरशाह' बत्रा को सलाम - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंशानदार अभिव्यक्ति ...सार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन से यहाँ पहुंचना अच्छा लगा ...!!
मैं भी देवघर का रहने वाला हूँ
सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत बधाई आपको .
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