"रियाज़"
की उम्र अभी बस डेढ़ साल है। वह एक नन्हा बच्चा है। हो सकता है हमें न देखने के बाद वह
जल्दी ही हमें भूल जाय।
मगर हम बच्चे
नहीं हैं। हम उसे कैसे भूलें?
कैसे वह हमारे घर में आकर खुश
हो जाता था... कैसे घण्टों वह हमारे साथ बिताता था... कितने शौक से 'मैगी' खाता
था... कैरम की गोटियों से तथा दूसरी चीजों से खेलता रहता था... इन बातों को हम तो
कभी भूलने से रहे।
उसे अब कब देख पायेंगे, पता
नहीं। वह पहले की तरह हमारे पास आयेगा या नहीं, पता नहीं।
***
लगभग पाँच साल
बिताकर हम अररिया छोड़ आये।
किसी अनुभवी
व्यक्ति ने बताया था कि बिहार में चार जिले ऐसे हैं, जहाँ वह "बिहारी"
कल्चर नहीं पाया जाता, जिसके लिए सारा बिहार बदनाम है- और वे जिले हैं- अररिया,
पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज। मैंने भी यही अनुभव किया।
यूँ तो अररिया
में मेरी बड़ी दीदी की शादी 1984 में ही हुई थी, पर पिछ्ले लम्बे समय से मेरा
अररिया आना-जाना बन्द था। तीन रास्ते हैं, तीनों अलग-अलग किस्म के सरदर्दों से भरे
पड़े हैं- सो यहाँ आने से मैं बचने लगा था। बाद में ऐसा हुआ कि 2008 से मुझे एक तरह
से यहाँ बसना पड़ा। इसी बहाने दीदी-जीजाजी तथा अन्य परिजनों से सम्बन्ध फिर से
प्रगाढ़ हुए- क्योंकि मैं दीदी के घर के आस-पास ही किराये पर रहा।
***
यहाँ मेरा समय
अच्छा बीता- हर तरह से।
जिनकी याद
कभी-कभार आयेगी, उनमें हैं- कैसर और मण्टू (शमीम) भाई तथा उनका परिवार। वैसे,
दोनों फेसबुक पर भी हैं, इसलिए उम्मीद करता हूँ कि सम्पर्क बना रहेगा। आजाद हुसैन
भी फेसबुक पर है, पर लगता है, उसकी रुची इसमें नहीं है। जय कह रहा था- ठीक है, वह
भी मुझे खोज निकालेगा फेसबुक पर। जेनिश, विपुल और जयराम से शायद फिर कभी सम्पर्क न हो।
***
अररिया का लैण्डमार्क- काली मन्दिर, जिसके शिखर का अनावरण पिछले साल (2012) में ही हुआ. अन्यथा, यह बाँस बल्लियों से ढका रहता था- यानि काम चलता रहता था.
मेरी दीदी ने बताया कि जबसे वह यहाँ आई है (1984 में), तभी से यह शिखर ढका है.
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