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(प्रसंगवश,
अररिया से दिल्ली के लिए एक ही ट्रेन है- 'सीमांचल एक्सप्रेस'। लगभग 6 साल हुए, जब
यहाँ की मीटरगेज लाईन ब्रॉडगेज तब्दील हुई है। सम्भवतः यह ट्रेन पहले सीतामढ़ी तक
चलती थी, जिसे अब जोगबनी- नेपाल की सीमा- तक बढ़ा दिया गया है।)
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खैर, इण्टरनेट पर
पहले मैंने वापसी की टिकटें बनायी, फिर जाने की और तब माँ-पिताजी को खबर किया कि बदरीनाथ चलना है। अगले दिन पिताजी ने लम्बी यात्रा करने से मना कर दिया और कहा-
अपनी चाची को ले जाओ। फिर मैंने पिताजी की टिकटें कैन्सल कर चाचीजी की टिकटें बनवा
लीं। अंशु (मेरी श्रीमती) की माताजी भी हमारे साथ ही थीं- उनकी टिकट भी बनवा चुका
था। हलाँकि चलने-फिरने में उन्हें दिक्कत है- फिर भी, बदरीनाथ यात्रा के लिए वे
तैयार थीं। बाकी रहा- अंशु की दोनों बहनों को सूचित करना। बड़ी बहन करनाल (हरियाणा)
में हैं, तो छोटी बहन मुरादाबाद (उ.प्र.) के
निकट। दोनों तैयार हो गयीं। हालाँकि दोनों के पति-परमेश्वरों को, लगता है- तीर्थ के देवता ने नहीं बुलाया- दोनों के काम निकल आये।
निकट। दोनों तैयार हो गयीं। हालाँकि दोनों के पति-परमेश्वरों को, लगता है- तीर्थ के देवता ने नहीं बुलाया- दोनों के काम निकल आये।
खैर, 4 मई को मेरे भांजे ओमू ने माँ और चाची को अररिया पहुँचा दिया
और 6 मई, रविवार को हमलोग अररिया से रवाना हो गये। 7 की रात दस बजे हम गाजियाबाद स्टेशन पर उतर गये। 8 मई की
सुबह सवा छह बजे 'हरिद्वार मेल' में हमारी आगे की टिकटें बुक थीं। इन्दिरापुरम में
रह रहे अशोक जैन साहब ने हमें सुझाव दिया कि हम रात उनके घर ठहर जायें और वे सुबह
हमें स्टेशन छोड़ देंगे। एकबार हम तैयार भी हुए, पर अन्त में हमने तय किया, लौटते समय- 15 मई को उनके घर पर रुकेंगे- फिलहाल
स्टेशन पर रात गुजार कर हरिद्वार की ट्रेन पकड़ ली जाय- और हमने ऐसा ही किया।
जब 'हरिद्वार मेल'
मेरठ से गुजर रही थी, तब हमने बबीता- अंशु की छोटी
बहन- को फोन लगाया, पता चला उसकी बस भी मेरठ से गुजर रही है... वह मुरादाबाद से अपने छोटे बेटे को साथ लेकर मेरठ आयी थी और मेरठ से अपने सोलहवर्षीय बेटे आशु को (उसकी बुआ के घर से) साथ लेकर करनाल जा रही थी। अगर मुझे पहले पता होता कि गाजियाबाद से हरिद्वार जानेवाली ट्रेन मेरठ होकर जाती है, तो उनलोगों को खबर करके हम मेरठ में उन्हें अपनी ट्रेन में बैठा लेते।
बहन- को फोन लगाया, पता चला उसकी बस भी मेरठ से गुजर रही है... वह मुरादाबाद से अपने छोटे बेटे को साथ लेकर मेरठ आयी थी और मेरठ से अपने सोलहवर्षीय बेटे आशु को (उसकी बुआ के घर से) साथ लेकर करनाल जा रही थी। अगर मुझे पहले पता होता कि गाजियाबाद से हरिद्वार जानेवाली ट्रेन मेरठ होकर जाती है, तो उनलोगों को खबर करके हम मेरठ में उन्हें अपनी ट्रेन में बैठा लेते।
खैर, दोपहर में
हरिद्वार पहुँचकर हमने श्री जाट धर्मशाला में शरण ली। इस धर्मशाला के बारे में
करनाल वाली जीजी ने जानकारी दे
दी थी। रात नौ बजे करीब करनाल से वे दोनों बहनें भी धर्मशाला में पहुँच गयीं। बड़ी जीजी की छोटी बेटी भी साथ थीं। हमारा बेटा अभिमन्यु तो था ही। इस प्रकार, हमारा दल 11 सदस्यों का बन गया- 3 किशोर, 1 युवती, 3 महिलायें, 3 बुजुर्ग महिलायें और 1 मैं खुद।
दी थी। रात नौ बजे करीब करनाल से वे दोनों बहनें भी धर्मशाला में पहुँच गयीं। बड़ी जीजी की छोटी बेटी भी साथ थीं। हमारा बेटा अभिमन्यु तो था ही। इस प्रकार, हमारा दल 11 सदस्यों का बन गया- 3 किशोर, 1 युवती, 3 महिलायें, 3 बुजुर्ग महिलायें और 1 मैं खुद।
***
8 मई की सन्ध्या
को "हर की पौड़ी" पर गंगाजी की आरती हम देख चुके थे- तब अंशु की दोनों
बहनें हरिद्वार नहीं पहुँची थीं। 9 की सुबह सूर्योदय से काफी पहले हम गंगाजी में
डुबकी लगाने पहुँच
गये। डुबकी लगाने के बाद हम सबने सुबह की भी आरती देखी। फिर हमसब प्रसिद्ध "मनसा देवी" के मन्दिर में गये। शाम को फिर हम सब हर की पौड़ी पर गये- आरती देखने।
गये। डुबकी लगाने के बाद हम सबने सुबह की भी आरती देखी। फिर हमसब प्रसिद्ध "मनसा देवी" के मन्दिर में गये। शाम को फिर हम सब हर की पौड़ी पर गये- आरती देखने।
गंगाजी की तीव्र
धारा को देखकर कितना आनन्द मिलता है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जब चुल्लू में
भरकर इस जल को हम पीते हैं, तो ऐसा लगता है, साक्षात देवताओं के चरणों से बहकर आते
"चरणामृत" का हम पान कर रहे हैं! जल इतना मीठा हो सकता है- इसका अहसास
यहीं आकर होगा।
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उल्टियाँ भी हुईं। उसे धर्मशाला के सामने डॉ. गोयल के पास मैं ले गया। उन्होंने सूई देने को कहा- कम्पाउण्डर से। सूई से हमदोनों पति-पत्नी खूब डरते हैं। हमने कहा- दवा से काम नहीं चलेगा? डॉक्टर बोले- पानी तक तो हजम हो नहीं रहा, दवा कैसे हजम होगी? कलाई के पास नस में इंजेक्शन दिया गया।
हुआ यह था कि
अंशु ने अपनी करनाल वाली जीजी को चने-उड़द की दाल के साथ चावल बनाकर लाने की
फर्माइश कर दी थी। 8 की दुपहर मैं जो खाना लाया था- उसमें भी दाल चने-उड़द की थी।
चने की दाल अंशु को हजम नहीं होती। सुबह से ही उसके पेट
में दर्द शुरु हो गया था और इसी स्थिति में ही वह "मनसा देवी" की 850 सीढ़ियाँ चढ़ गयी थी। हालाँकि वापसी में मैं उसे "रज्जु मार्ग" (Rope Way) से लेकर आया, फिर भी, दर्द और उल्टियों से उसका बुरा हाल हो चुका था। खटका भी लगा- क्या बद्रीनाथ रूठ गये... ?
में दर्द शुरु हो गया था और इसी स्थिति में ही वह "मनसा देवी" की 850 सीढ़ियाँ चढ़ गयी थी। हालाँकि वापसी में मैं उसे "रज्जु मार्ग" (Rope Way) से लेकर आया, फिर भी, दर्द और उल्टियों से उसका बुरा हाल हो चुका था। खटका भी लगा- क्या बद्रीनाथ रूठ गये... ?
खैर, इंजेक्शन
लगने के दो-चार मिनट बाद ही अंशु की तबीयत ठीक होने लगी और क्लिनिक से बाहर आकर बोली-
लस्सी पिला दो। हमने डॉक्टर साहब को मन-ही-मन ढेरों धन्यवाद दिया।
अंशु की तबीयत
ठीक देखकर हमने बद्रीनाथ जाने के लिए बस में
सीट बुक किये- धर्मशाला के सामने एक एजेण्ट से। एजेण्ट साहब ने हमें बेवकूफ बनाया- बोले 42सीटर बस है और आपकी सीट 18 से 28 तक है- हमने सोचा, ये सीटें बस के बीच में पड़ेंगी। यूँ तो हम उस एजेण्ट से "ट्रैवेलर" की बात करके गये थे, पर रसीद आधा भरकर फिर फोन करके उन्होंने सूचित किया- ट्रैवेलर बुक हो गया है।
सीट बुक किये- धर्मशाला के सामने एक एजेण्ट से। एजेण्ट साहब ने हमें बेवकूफ बनाया- बोले 42सीटर बस है और आपकी सीट 18 से 28 तक है- हमने सोचा, ये सीटें बस के बीच में पड़ेंगी। यूँ तो हम उस एजेण्ट से "ट्रैवेलर" की बात करके गये थे, पर रसीद आधा भरकर फिर फोन करके उन्होंने सूचित किया- ट्रैवेलर बुक हो गया है।
खैर, सुबह 7:30
पर बस चलनी थी- स्टैण्ड पर पहुँचकर देखा- यह 28सीटर बस थी- यानि हमारी सीटें सबसे
पीछे थीं! दुर्भाग्य से, हमारे ड्राइवर साहब भी ऐसे निकले, जो स्पीड ब्रेकर और
खराब
सड़क पर बस की गति को कम करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे! मत पूछिये कि सारे
रास्ते में झटके खाते-खाते और उछलते-कूदते हमारी क्या हालत हुई थी! ड्राइवर पर
हमारी किसी भी बात का बिलकुल असर नहीं हो रहा था। बस रुकने पर वह बड़े अच्छे से
हमसब से बातें करता था, मगर 5-7 मिनट बस चलाने के बाद वह अपने खड़ूस स्वभाव पर आ
जाता था। मुझे भी मात्र एक या दो बार ही गुस्सा आया- वह भी हल्का-सा। पता नहीं
कैसे, हमलोग हँसी-मजाक में इतना झेल गये! जबकि हमारे दल के तीन बच्चे उल्टियाँ
कर-कर के परेशान हो रहे थे! मैं होम्योपैथिक दवा
साथ लेकर चला था- पर दो बच्चों को
इसकी गन्ध पसन्द नहीं आयी, तीसरे पर असर नहीं हुआ। असर हुआ अभिमन्यु पर- उसे एक भी
उल्टी नहीं हुई। अंशु का एकबार जी घबराया- उसपर भी दवा ने काम किया।
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***
बदरीनाथ के
यात्रामार्ग के बारे में सब जानते ही होंगे, फिर भी बता दूँ। हरिद्वार से यह 320
किलोमीटर लम्बा मार्ग है। हिमालय की शुरुआत हालाँकि हरिद्वार से ही हो जाती है, पर
चूँकि हरिद्वार में कंक्रीट निर्माण, गाड़ियों की संख्या और जनसंख्या काफी बढ़ गयी
है, इसलिए यहाँ का मौसम मैदानी इलाकों-जैसा हो गया है। किसी जमाने में (60-70 साल
पहले) हरिद्वार से ही "देवभूमि" का अहसास होने लगता होगा.... आज की
तारीख में 275 किमी दूर जोशीमठ पहुँचने के बाद जाकर यह अहसास होता है कि हम
"देवताओं की भूमि" पर हैं!
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देवप्रयाग तक रास्ता
गंगाजी के किनारे-किनारे चलता है। यहाँ गंगोत्री से आने वाली भागीरथी में दाहिनी
ओर से अलकनन्दा नदी आकर मिलती है। यमुनोत्री-गंगोत्री जाने वाले तीर्थयात्री
भागीरथी के किनारे चल पड़ते हैं और केदार-बदरी जाने वाले अलकनन्दा के
किनारे। एक
ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत तो दूसरी ओर अलकनन्दा की गहरी घाटी। एक रोमांचक यात्रा!
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रूद्रप्रयाग में
बाँयी ओर से मन्दाकिनी नदी आकर अलकनन्दा से मिलती है। यहाँ मन्दाकिनी के किनारे
वाली सड़क केदारनाथ को जाती है, तो बदरीनाथ के यात्री अलकनन्दा के किनारे-किनारे
अपनी यात्रा जारी रखते हैं। इसके बाद कर्णप्रयाग तथा नन्दप्रयाग नामक दो और
छोटे-छोटे संगम आते हैं, मगर मुख्य नदी अलकनन्दा ही बनी रहती है। रूद्रप्रयाग तथा
चमोली अच्छे-खासे शहर हैं रास्ते के।
जोशीमठ 6,105 फीट
की ऊँचाई पर है। हरिद्वार से सुबह 7:30 पर
चलने वाली बसें यहीं रात्रि विश्राम के
लिए रुकती हैं। कुछ बसें थोड़ा पहले पीपलकोटी में ही रुक जाती हैं। जो बसें सुबह
5:30 पर (हरिद्वार से) चलती हैं, वे यहाँ बिना रुके बदरीनाथ पहुँच सकती हैं। मगर
मेरे विचार से, एक रात जोशीमठ (या पीपलकोटी) में रुकना अच्छा है। क्योंकि यहाँ के
बाद मौसम ठण्डा हो जाता है। एक रात यहाँ रुकने से हमारा शरीर ठण्डे मौसम के अनुकूल
हो जाता होगा।
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हमलोग भी जोशीमठ
में रुके। चार में से एक शंकराचार्य की पवित्र पीठ यहीं है। हमने कमरे खोजने में
कुछ ज्यादा ही समय ले लिया, जिस कारण जब हम पीठ पर पहुँचे, द्वार बन्द हो चुके थे।
बाहर से ही हमने प्रणाम किया।
हरिद्वार में
धर्मशाला में जिस प्रकार आई'कार्ड का फोटोस्टेट माँगा गया था, उस लिहाज से मैंने
तीन अतिरिक्त फोटोस्टेट करवा लिए थे कि जोशीमठ
तथा बदरीनाथ में माँगे जायेंगे।
मगर यहाँ ऐसा कुछ न हुआ। जिन दो कमरों में हम ठहरे, उनका आज ही उद्घाटन हुआ था- हम
पहले यात्री थे- उन्होंने रजिस्टर तक नहीं शुरु किया था। सुबह 5 बजे वे देखने तक
नहीं आये कि उनके नये-नये साजो-सामान सही-सलामत हम छोड़कर जा रहे हैं या नहीं!
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आखिरी 45
किलोमीटर सड़क अपेक्षाकृत खराब थी- शायद 'सीमा सड़क संगठन' वालों को इसे ठीक करने के
लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाया और यात्रा मार्ग खोल दिया गया।
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***
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रात तीनों बहनें
एकसाथ फिर बाजार गयीं। भोर में भी तीनों बदरीनाथ के दर्शन कर आयीं- बस में सवार
होने से पहले।
होटल के बगल वाली
चाय दूकान पर आन्ध्र प्रदेश के एक हट्टे-कट्टे व्यक्ति ने टूटी-फूटी हिन्दी में
बताया कि वह केदारनाथ में एक घण्टे के लिए बेहोश हो गया था- ठण्ड के मारे। फिर उसे
"कस्तूरी" सुँघाकर होश में लाया गया। वह अब भी "कस्तूरी" सूँघ
रहा था।
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बदरीनाथ तथा गंगोत्री तक बसें चलती हैं- यह मैं जानता था। अतः मेरी योजना में बद्रीनाथ के बाद "गंगोत्री"-यात्रा शामिल थी, मगर केदारनाथ और यमुनोत्री के बारे में मैंने सोचा तक नहीं था। केदार में 14 किलोमीटर तथा यमुनोत्री में 3 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके फिर वापस आना पड़ता है। यह हमारे दल के सदस्यों के बस की बात नहीं थी। दूसरी बात, अपनी किशोरावस्था में मैंने शंकु महाराज का बँगला उपन्यास "विगलित करूणा जाह्नवी जमुना" पढ़ा था- इसने मुझे कुछ ज्यादा ही प्रभावित कर दिया था। कहने को तो यह एक यात्रा-वृतान्त है, मगर इसकी नायिका सुमन गोमुख से गंगोत्री लौटने के क्रम में बर्फ के नीचे बह रही जलधारा में समा गयी थी... और यह वृतान्त एक 'उपन्यास' बन गया था! वह ताजा बर्फ चुनने के लिए उस तरफ बढ़ गयी थी, जिधर जाने से मार्गदर्शक सन्यासी ने मना किया था... और लेखक की आँखों के
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बदरीनाथ तथा गंगोत्री तक बसें चलती हैं- यह मैं जानता था। अतः मेरी योजना में बद्रीनाथ के बाद "गंगोत्री"-यात्रा शामिल थी, मगर केदारनाथ और यमुनोत्री के बारे में मैंने सोचा तक नहीं था। केदार में 14 किलोमीटर तथा यमुनोत्री में 3 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके फिर वापस आना पड़ता है। यह हमारे दल के सदस्यों के बस की बात नहीं थी। दूसरी बात, अपनी किशोरावस्था में मैंने शंकु महाराज का बँगला उपन्यास "विगलित करूणा जाह्नवी जमुना" पढ़ा था- इसने मुझे कुछ ज्यादा ही प्रभावित कर दिया था। कहने को तो यह एक यात्रा-वृतान्त है, मगर इसकी नायिका सुमन गोमुख से गंगोत्री लौटने के क्रम में बर्फ के नीचे बह रही जलधारा में समा गयी थी... और यह वृतान्त एक 'उपन्यास' बन गया था! वह ताजा बर्फ चुनने के लिए उस तरफ बढ़ गयी थी, जिधर जाने से मार्गदर्शक सन्यासी ने मना किया था... और लेखक की आँखों के
सामने वह बर्फ में समा गयी थी। नायिका बस
एक सहयात्री थी, जो जिद करके गंगोत्री से गोमुख की कठिन यात्रा में लेखक के साथ हो
गयी थी। यह उपन्यास उनदिनों का है, जब सिर्फ धरासु तक बस चलती थी- बाकी सारी
यात्रायें पैदल तय की जाती थीं। बँगला में इसपर फिल्म भी बन चुकी है। यह बात कभी
मैंने अंशु से बतायी थी- सो वह भी गंगोत्री यात्रा के पक्ष में थी।
मगर हमारी वापसी की
यात्रा इतनी थकान भरी रही कि हरिद्वार लौटकर फिर किसी ने गंगोत्री यात्रा का नाम
नहीं लिया। यह भी सुना गया कि वहाँ बर्फ जमी हुई है। हमारी तैयारियाँ उस लायक नहीं
थीं।
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17 की सुबह
अररिया स्टेशन पर आकर पता चला- नगरपालिका का चुनाव चल रहा है, सो टेम्पो, रिक्शा
शहर में प्रवेश नहीं करेंगे। हम पैदल चलने के लिए जब तैयार हो गये, तब एक तांगा
हमें मिला, जिसने हमें घर तक छोड़ा।
***
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बस से नीचे की ओर
अलकनन्दा पर बने उस पुल को देखकर मैं वास्तव में रोमांचित हो गया था, जिसके बुर्ज
पर जिम कॉर्बेट ने
उस बाघ के इन्तजार में बीस रातें बितायी थीं....!
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जिम कॉर्बेट की
पुस्तक "रूद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ" मेरी पसन्दीदा पुस्तकों में एक है।
ऐसी रोमांचक पुस्तक मैंने दूसरी नहीं पढ़ी!