रविवार, 22 अगस्त 2021

260. अथ तस्वीर कथा

 


       नयी पीढ़ी वाले विश्वास करें या न करें, मगर यह सच है कि एक जमाने में हमलोगों के हाथों में "स्मार्टफोन" नहीं हुआ करते थे, फिर भी हम जिन्दा रहते थे, घूमते-फिरते थे, दुनिया भर की जानकारियाँ रखते थे और चाहने वालों के साथ सम्पर्क भी हमारा बना रहता था!

और हाँ, चूँकि हाथों में स्मार्टफोन नहीं होते थे, इसलिए किसी घूमने वाली जगह पर जाने के बाद दे-दनादन फोटोग्राफी करने या तथाकथित "सेल्फी" लेने की प्रथा भी नहीं थी।

कुछेक के हाथों में कैमरे हुआ करते थे और वे गिन-चुनकर तस्वीरें लिया करते थे। कैमरे में आग्फा, कोडक, कोनिका, साकुरा की फिल्में हुआ करते थीं, जो 36 तस्वीरों के लिए बनी होती थी। जो इनसे 39 तक तस्वीरें ले लिया करते थे, उन्हें तारीफ मिलती थी।

यह तो हुई हमारे जमाने की बात। इससे भी पहले का जमाना सफेद-काली तस्वीरों का था। तब विदेशी फिल्मों के साथ 'इन्दु' नाम की एक भारतीय फिल्म भी आया करती थी। इन फिल्मों में 12 तस्वीरें आती थीं।

बीच में अग्फा ने 24 तस्वीरों के लायक एक 'कार्ट्रिज' उतारी थी, पर वह चली नहीं थी, उसमें तस्वीरें साफ भी नहीं आती थीं।

हम-जैसे आम लोग 'ऑटो फोकस' पर फोटोग्राफी किया करते थे और उस्ताद लोग एपर्चर, शटर स्पीड इत्यादि सेट करके तस्वीरें लेते थे।

हाँ, तो बहुत-से लोग ऐसे होते थे, जिनके पास कैमरे नहीं होते थे। ऐसे लोगों के लिए पेशेवर छायाकार घूमने वाली जगहों पर घूमा करते थे। वे तस्वीरें खींचते थे, पैसे ले लेते थे और नाम-पता लिख लिया करते थे। बाद में डाक से वे तस्वीरें भेज दिया करते थे।

अभी 5-7 साल पहले तक हमने नैनीताल और पुरी में ऐसे फोटोग्राफरों को देखा था। वे शाम तक होटलों में- जहाँ आप ठहरे हैं- तस्वीरें पहुँचा दिया करते थे।

अब इस तस्वीर की बात, जो पोस्ट में है।

1991 की तस्वीर है। हम एक लम्बी यात्रा से आगरा आकर ठहरे थे। चले थे बंगलोर से, पहला पड़ाव हैदराबाद था, दूसरा नासिक। नासिक में रात्रि-विश्राम था। वहाँ से चण्डीगढ़, फिर कानपुर, इलाहाबाद होते हुए आगरा में उतरे थे। यह वायु मार्ग की यात्रा थी (वायु सेना का काम था)। अब आगरा से सड़क मार्ग से हमें ग्वालियर जाना था (इसी यात्रा में सड़क चम्बल के बीहड़ों से गुजरती है- क्या रोमांच था!)। तो आगरा में जब रूकने का अवसर मिला, तो स्वाभाविक रूप से हम ताजमहल घूमने पहुँच गये। कैमरा साथ था नहीं और ताजमहल का भव्य रूप देखकर (एक गेट को पार करते ही अचानक ताज का जो रूप नीले आकाश की पृष्ठभूमि पर नजर आता है- वह भव्य रूप!) होश उड़ा हुआ था।

एक फोटोग्राफर से तस्वीर खिंचवाये, उसे पैसे दिये और नाम-पता लिखवा दिया। बाद में उसने तस्वीर भेज दी। हमने तस्वीर देखी और वापस लिफाफे में तस्वीर रख दी। बाद में भूल गया। कुछ वर्षों के बाद वह लिफाफ बक्से के किसी कोने में चला गया।

बाद में STD का जमाना आया, पत्रलेखन कम हुआ। 2004-05 में कभी मोबाइल फोन आया, तो पत्रलेखन लगभग बन्द हो गया। पुरानी चिट्ठियों को गट्ठर बाँध-बाँध कर रख दिया। इसके पहले दो बार पुरानी चिट्ठियों की ढेर को जला चुका था। तीसरी बार, जाने क्या मन में आया, नहीं जलाया कि निशानी रह जायेगी- पत्रलेखन की।

तो चिट्ठियों के बण्डल घर आ गये। कहीं टाँण्ड पर रखे रहते थे। हाल की सफाई-पुताई में बाहर निकले थे, बाहर ही पड़े रह गये। फिर वर्षा आयी, ये भींग गये। बण्डल खोलकर सुखाया, सुखाने के बाद जब फिर बण्डल बना रहे थे, तब किसी-किसी चिट्ठी को खोलकर देख भी रहे थे।

...उसी दौरान यह तस्वीर मिल गयी। यानि लगभग 30 वर्षों के बाद हम इस तस्वीर को देख रहे थे!

  इस तस्वीर से यह साबित होता है कि हम एक समय में काले रंग के अलावे किसी दूसरे रंग की पैण्ट भी पहना करते थे।

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