रविवार, 22 अगस्त 2021

259. झूलन और रक्षाबन्धन

 

       रक्षाबन्धन के साथ आता था- झूलन।

       हमलोगों का यह पसन्दीदा त्यौहार हुआ करता था।

       बरामदे पर ईंट, मिट्टी और घास के चप्पों से पहाड़ बनाये जाते थे, बालू (कभी-कभी चावल मिल की राख से) से सड़कें बनती थीं, एक झूले पर राधा-कृष्ण की प्रतिमा को झुलाया जाता था और घर के सारे खिलौनों को निकाल कर सजाया जाता था। यह पाँच दिनों का त्यौहार था, जो रक्षाबन्धन के दिन समाप्त होता था।

       किसी एक दिन झूले को केले के पत्तों से, एक दिन कटहल के पत्तों से, फिर किसी दिन किसी और चीज सजाया जाता था और अन्तिम दिन की सजावट रूई से होती थी।

       हमारे बच्चे कल्पना ही नहीं कर सकते कि यह झूलन हमलोगों के लिए कितना बड़ा त्यौहार हुआ करता था।

       रक्षाबन्धन वाले दिन पिताजी से मिले हुए दो रुपये के करारे नोट हमलोग बड़ी शान के साथ दीदियों को दिया करते थे। वे (दो दीदी और एक चचेरी बहन) कितनी तैयारियाँ किया करती थीं। राखी वाले दिन राखी बाँधकर माथे पर तिलक लगाकर सिर पर चावल और दूब डालती थी और खीर और मिठाई खिलाती थी।

       कभी लगता है कि कुछ ही समय पहले की बात है और कभी लगता है कि युग बीत गया।

       एक परम्परा का जिक्र श्रीमतीजी करती हैं- रक्षाबन्धन से पहले वे हाथों से सेवइयाँ बनाया करती थीं और इस दिन इसी की खीर बनती थी।

       एक सुन्दर, सरल, सहज, स्वाभाविक त्यौहार, जिसमें होता था निश्छल प्रेम- और कुछ नहीं।  

    *** 

एक पुरानी तस्वीर- 



 

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