रविवार, 28 जनवरी 2018

१९५. "हाब-गुबा-गुब"


       बंगाल- बेशक, बाँग्लादेश सहित- की एक गायन शैली है- "बाउल"। यह लोकगीत की एक शैली है। इसे गाने वाले आम तौर पर यायावर सन्यासी होते हैं, जो विचारधारा से वैष्णव होते हैं। जानकारी मिलती है कि सूफी फकीर भी इसे गाते हैं- हो सकता है, बाँग्लादेश में ये पाये जाते हों। अपने बँगाल में गेरूआ चोगा पहने, गले में तुलसी माला लटकाये और सिर पर गेरूआ पगड़ी बाँधे ये लोकगायक अक्सर कहीं-न-कहीं मिल जाते हैं। बेशक, महिला सन्यासिनी भी होती हैं बाउल गाने वालीं। जीवन की आपाधापी में फँसे लोगों को ये लोग अपने अद्भुत गायन से संसार की नश्वरता का सन्देश देते हैं।
इस कलाकृति में एक वैष्णव सन्यासी बाउल गा रहा है...

...तो इस कलाकृति में एक सूफी फकीर को बाउल गाते हुए दिखाया गया है. 
       इनके हाथ में इकतारा किस्म का एक वाद्ययंत्र होता है, जिसकी ध्वनि इनके गायन के साथ ऐसे घुल-मिल जाती है कि बिना इस वाद्ययंत्र के संगीत के बाउल गान की कल्पना ही नहीं की जा सकती! यह वाद्ययंत्र कद्दू के बाहरी आवरण से बना होता है, ऊपर बाँस की दो खपच्चियाँ जुड़ी होती हैं, पेन्दे की तरफ चमड़ा लगा होता है और खपच्चियों के सिरे से लेकर चमड़े तक एक तार लगा होता है। (अब आधुनिक किस्म के वाद्ययंत्र भी बनने लगे हैं, जैसा कि पिछले दिनों मैंने ट्रेन में देखा- युवा बाउल गायक के हाथ में।)

       इस वाद्ययंत्र को हमलोग अपने बचपन में "हाब-गुबा-गुब" कहते थे। अनुमान लगाता हूँ कि गाँव-देहातों में आज भी इसे "हाब-गुबा-गुब" ही कहा जाता होगा। यह नाम इसे इससे निकलने वाली ध्वनि के आधार पर दिया गया है।

       अभी नेट पर जानकारी बढ़ाने के क्रम में पता चला कि एक तार वाले वाद्ययंत्र को वास्तव में 'गुबगुबा' ही कहते हैं। जिस वाद्ययंत्र में दो तार लगे होते हैं, उन्हें 'खोमोक' कहते हैं।
       जानकारी मिल रही है कि इकतारा-दोतारा के अलावे दो से अधिक तारों वाले सारंगी-जैसे वाद्ययंत्र और छोटे तबले-जैसे "डुगी" का भी इस्तेमाल होता है बाउल में। घुँघरू और करताल का इस्तेमाल तो खैर होता ही है।
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       जब हमलोग सवारी रेलगाड़ी में अपने यहाँ से रामपुरहाट या इससे आगे जाना-आना करते हैं, तो अक्सर ट्रेन में बाउल गाने वाले मिल ही जाते हैं। कभी कोई युवा सन्यासी अकेला गाता है और कभी कोई वैष्णव दम्पत्ति साथ में गाते हैं।
       कुछ समय पहले ट्रेन में एक युवा सन्यासी को बाउल गाते देखा, तो मैंने उसका विडियो बना लिया था। उसे यहाँ क्लिक करके देखा जा सकता है।  
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       इस आलेख को लिखने से पहले जब मैंने थोड़ी-सी जानकारी बढ़ानी चाही बाउल के बारे में, तो मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि 'युनेस्को' ने साल २००५ में इस गायन शैली को मानवता के धरोहर ("Masterpieces of the Oral and Intangible Heritage of Humanity") की सूची में शामिल किया है।
       एक और जनकारी मिली कि "लालन फकीर" (१७७४-१८९०) अब तक के सबसे प्रसिद्ध बाउल गायक हुए हैं। बाउल संगीत की उत्पत्ति के बारे में कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है। सदियों से यह संगीत परम्परा बंगाल की संस्कृति में रच-बस कर बंगाली जन-मानस को प्रभावित करती रही है। कहते हैं कि रवींद्रनाथ ठाकुर भी इस संगीत से प्रभावित थे और रवींद्र संगीत में कुछ हद तक उसकी छाप मिल जाती है। मेरा अनुमान है कि एस.डी. बर्मन साहब ने भी कुछ फिल्मी गीतों में बाउल संगीत वाली शैली का उपयोग किया है।

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