रविवार, 10 जनवरी 2016

153. मिट्टी की झोपड़ी

उधवा जाने के रास्ते में- 

       पिछले रविवार उधवा से लौटते वक्त एक परित्यक्त सन्थाली झोपड़ी ने मेरा ध्यान खींचा। पता नहीं, इतनी अच्छी झोपड़ी परित्यक्त अवस्था में क्यों है!
प्रसंगवश मैं यहाँ यह बता दूँ कि सन्थालों की ये झोपड़ियाँ कई मामलों में अन्य झोपड़ियों से अलग होती हैं। इनकी दीवारें काफी मोटी होती हैं, जो गर्मियों में गर्मी को तथा जाड़ों में ठण्ड को अन्दर आने से रोकती हैं। यानि ये झोपड़ियाँ प्राकृतिक रुप से वातानुकूलित होती हैं। इनके छप्पर में ताड़ के तनों का इस्तेमाल होता है, जो बहुत ही टिकाऊ होती हैं। इन दीवारों पर अलग-अलग रंगों की मिट्टी से ऐसा लेप किया जाता है कि दीवारें पक्की मालूम होती हैं। आम तौर पर खिड़कियाँ नजर नहीं आतीं, सो अन्दर प्राकृतिक रोशनी के लिए क्या व्यवस्था होती है, यह मैं नहीं बता सकता; मगर कुछ झोपड़ियों में आँगन बने होते हैं, जिससे अन्दर रोशनी मिलती है। बनावट बताती है कि ये झोपड़ियाँ दुमंजिली होती हैं। कुछ झोपड़ियों में बाकायदे बरामदे भी होते हैं।  
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बाकुडीह के आस-पास कहीं- 
       एक समय आयेगा, जब पक्का मकान बनवाने वाले भी छत के एक कोने में या खाली जमीन के एक कोने में मिट्टी की एक झोपड़ी बनवाने की सोचेंगे! आगे चलकर हमारे देश में गर्मी का प्रकोप बढ़ेगा और उसी अनुपात में बिजली की उपलब्धता घटेगी। ऐसे में मिट्टी की एक झोपड़ी ही लोगों को राहत पहुँचायेगी।
       मैंने भी सोचा था एक ऐसी ही छोटी-सी झोपड़ी बनवाने के बारे में, मगर पता चला, सन्थाल लोग अपनी झोपड़ियाँ खुद बनाते हैं, मजदूरों के तरह दूसरों की झोपड़ी बनाने के लिए राजी नहीं होंगे। दूसरी बात, वे काफी समय लेते हुए 'परफेक्शन' के साथ काम करते हैं- पता चला, जितने समय में राजमिस्त्री एक पक्का कमरा बना देते हैं, उतने समय में ये झोपड़ी की सिर्फ तीन फीट ऊँची दीवारें ही बनाये!
       ...जो भी हो, मेरी यह इच्छा अभी तक मरी तो नहीं ही है...

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शायद कुसमा के तरफ कहीं- 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आगे चलकर हमारे देश में गर्मी का प्रकोप बढ़ेगा और उसी अनुपात में बिजली की उपलब्धता घटेगी। ऐसे में मिट्टी की एक झोपड़ी ही लोगों को राहत पहुँचायेगी।
    ..बहुत सही अनुमान ...काश कि ऐसा सोच बने ..प्रदुषण में रहना मंजूर है हम शहरी हो चुके लोगों को लेकिन ऐसा नहीं कर पाते ..

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