बुधवार, 25 मार्च 2015

134. eBooks की मेरी वेबसाइट- जगप्रभा डॉट इन


       पिछले साल जब अभिमन्यु अपनी वेबसाइट के लिए डोमेन खरीद रहा था, तब मैंने उससे "जगप्रभा" नाम से भी डोमेन खरीद लेने के लिए कहा था। उसने खरीद भी लिया था, मगर मैंने वेबसाइट नहीं बनायी; जबकि उसने अपनी वेबसाइट बना ली थी। 
       इस साल जब डोमेन के नवीणीकरण का अवसर आया, तब मैंने कहा कि जगप्रभा की भी वेबसाइट बना दो। कई घण्टों की मशक्कत के बाद परसों उसने वेबसाइट बना दी। कैसी बनी है, यह तो आप ही बेहतर बता सकते हैं। URL है: http://jagprabha.in/ । मैं आप सबका अपनी इस वेबसाइट पर स्वागत करता हूँ।
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       पिछले कुछ समय से इस सोच-विचार में था कि ई-बुक्स के मूल्य-निर्धारण का पैमाना क्या होना चाहिए? –क्योंकि मेरी ई-बुक्स की कीमत मुझे ज्यादा लग रही थी। मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ई-बुक्स की कीमत इतनी कम होनी चाहिए कि किसी को भी मँगवाते वक्त न अखरे और जो सूत्र मैंने तय किया मूल्य-निर्धारण का, वह इस प्रकार है कि 50 पृष्ठ तक की ई-बुक की कीमत 10 रुपये तथा 51 से 100 पृष्ठ तक की ई-बुक की कीमत 20 रुपये रखी जाय। ई-बुक तैयार करने में जो मेहनत ('परफेक्शन' कहना अतिश्योक्ति होगी) मैं करता हूँ, उसे मैंने मूल्य-निर्धारण के मामले में नजरअन्दाज कर दिया है।
       jagprabha.in पर इन्हीं नये कम मूल्यों के साथ अब तक तैयार 5 eBooks को मैंने अपलोड किया है। "बिन्दुधाम बरहरवा तथा पहाड़ी बाबा" ई-बुक को मैंने निश्शुल्क रखा है। आप सब से अनुरोध है कि इसे एकबार मँगवा कर कृपया मेरी वेबसाइट की जाँच करने का कष्ट करें कि यह ठीक-ठाक काम करता भी है या नहीं।
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       मेरा मुख्य उद्देश्य है- "बनफूल' की 586 कहानियों तथा सत्यजीत राय रचित जासूस फेलू'दा के 35 कारनामों को हिन्दी में प्रस्तुत करना। इसके अलावे, अपनी स्वरचित रचनाओं को भी मैं ई-बुक के रुप में प्रस्तुत करना चाहूँगा। और हाँ, अगर मेरा कोई संगी-साथी अपनी किसी रचना को यहाँ ई-बुक के रुप में प्रस्तुत करना चाहे, तो इस पर भी विचार करूँगा
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       अपने यहाँ ई-बुक्स का भविष्य है या नहीं, पता नहीं। बस एक उम्मीद है कि आने वाले समय में ज्यादा-से-ज्यादा लोग नेट-बैंकिंग से जुड़ेंगे और उसी अनुपात में eBooks की लोकप्रियता भी बढ़ेगी
       आगे देखा जाय...

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रविवार, 22 मार्च 2015

133. "प्रश्नपत्र नीति"


       क्या प्रश्नपत्र बनाते वक्त ऐसा नहीं किया जा सकता कि-
*30 प्रतिशत सवाल आसान पूछे जायें, ताकि औसत दर्जे से कम वाले या कमजोर विद्यार्थी भी इन्हें हल कर सकें;
*30 प्रतिशत सवाल औसत दर्जे के पूछे जायें- औसत दर्जे के विद्यार्थी जिन्हें आसानी से हल कर सकें;
*30 प्रतिशत सवाल कठिन पूछे जायें- तेज विद्यार्थियों के लिए, और
*10 प्रतिशत सवाल बहुत कठिन पूछे जायें, जिन्हें केवल मेधावी विद्यार्थी ही हल कर सकें?
       ऐसा न करके अगर सारे-के-सारे सवाल बहुत कठिन पूछे जायें, तो क्या होगा? मेरे ख्याल से, इसके एक नहीं, बहुत सारे दुष्परिणाम होंगे- और वे हमें नजर आते भी हैं। उस विवरण पर मैं नहीं जाना चाहता। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि देश को किसानों-मजदूरों, खिलाड़ियों-कलाकारों, मिस्त्रियों-कारीगरों, किरानियों-व्यापारियों से लेकर वैज्ञानिकों-विद्वानों तक सबकी जरुरत होती है।
सारी आबादी को विद्वान-वैज्ञानिक बनाने की कोशिश मूर्खता है!
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उपर्युक्त आलेख को मैंने परसों लिखा था, मगर जल्दी ही हटाना पड़ा। क्योंकि मुझे लगा- इससे यह सन्देश जा सकता है कि मैं बिहार में मैट्रिक परीक्षाओं में चल रही चोरी/नकल को उचित ठहराने की कोशिश कर रहा हूँ- कि चूँकि प्रश्नपत्र कठिन है, इसलिए चोरी/नकल हो रही है। ऐसी बात नहीं है। मैं चोरी या नकल के सख्त खिलाफ हूँ। मैंने खुद इनका सहारा लेने के बारे में कभी सपने में भी नहीं सोचा था/है।
मेरा कहना है कि समाज का हर विद्यार्थी "मेधावी" नहीं हो सकता और औसत तथा औसत से कम मेधा रखने वाले, या कमजोर विद्यार्थियों को भी स्कूल/कॉलेज जाने, परीक्षा पास करने का अधिकार है। कोई पढ़ाई में कमजोर है, तो क्या हुआ, हो सकता है कि उसे अभिनय बढ़िया करना आता हो, या वह फुटबॉल अच्छा खेलता हो, या फिर, कोई और गुण हो इसमें। उसे बार-बार फेल किया जायेगा, तो वह अवसाद में चला जायेगा, अपने सहपाठियों से बिछुड़ जायेगा, या फिर पढ़ाई ही छोड़ देगा। इसके विपरीत अगर वह मामूली अंकों से पास होता रहेगा, तो उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा, अपने सहपाठियों (चाहे वे कितने भी मेधावी छात्र हों) की संगत में रहेगा और सबसे बड़ी बात, उसे उस क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा, जिसमें वह दक्षता रखता है- जैसे, वह स्कूल/कॉलेज की ओर से खेलते हुए फुटबॉल के क्षेत्र में नाम कमा सकता है!
खैर, कल अखबार में CBSE की एक खबर पढ़ने के बाद मैंने फैसला किया कि नहीं, इस आलेख को फिर से पोस्ट करना है
...और आज अखबार में देखा- रवीश जी ने एक लेख लिखा है, अगर मिला, तो उसका लिंक भी यहाँ दूँगा।
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अभिमन्यु पढ़ाई में औसत या औसत से ऊपर है। पिछले साल NDA की परीक्षा की तैयारियों के समय उसने बताया था कि गणित के जो प्रश्न (11वीं-12वीं स्तर के नाम पर) इसमें पूछे जाते हैं, वे IIT के स्तर के हैं। मुझे आश्चर्य हुआ था और मेरे मुँह से निकला था- सेनाओं को अधिकारी चाहिए या परमाणु वैज्ञानिक?
इस बार अभिमन्यु ने झारखण्ड बोर्ड से इण्टर (I.Sc.) की परीक्षा दी। पता चला, रसायनशास्त्र और गणित का जो प्रश्नपत्र था, वह विद्यार्थियों की पढ़ाई जाँचने के लिए नहीं बनाया गया था, बल्कि प्रश्नपत्र तैयार करने वालों ने अपनी "प्रतिभा", अपना "ज्ञान" बघारने की नीयत से उसे तैयार किया था!
विद्यार्थियों के डरे हुए चेहरों की कल्पना करके ये प्रश्नपत्र सेट करने वाले विद्वान कुछ वैसा ही आनन्द प्राप्त करते होंगे, जैसा कि पुराने जमाने में कुछ कबीलों के सरदार अपने दुश्मनों को शेर के पिंजड़े में फिंकवा कर आनन्द प्राप्त करते थे...

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शुक्रवार, 20 मार्च 2015

132. "समाधिलेख" (An Epitaph)



                मेरा ननिहाल राजमहल है- बरहरवा से 26 किलोमीटर दूर। जब हम बच्चे थे, तब माँ हमारा हाथ पकड़कर हमें राजमहल जाया करती थी। बरहरवा जंक्शन से रवाना होकर हम तीनपहाड़ जंक्शन पर उतरते थे और वहाँ कुछ देर इन्तजार करते थे। तीनपहाड़ से एक शटल ट्रेन राजमहल को जाती थी। (अब भी चलती है।) तब हम माँ को परेशान किया करते थे- कब आयेगी ट्रेन? राजमहल में हमें लेकर जब माँ नीलकोठी के पास अपने घर- हमारे नानीघर- के पास पहुँचती थी, तब मुहल्ले से लेकर घर तक हलचल मचती थी- अगे, प्रभा'दी ऐलको... । माँ उस घर की सबसे बड़ी बेटी/सन्तान थीं।
       प्रायः चार दशक बीत गये। आज मैं माँ को स्कूटर पर बिठाकर राजमहल ले गया- ताकि वह नानाजी के अन्तिम दर्शन कर सके। मेरे नानाजी (माँ के मेजो बाबू) श्री हरिचरण राय का आज देहावसान हुआ। वे स्वस्थ ही थे- हृदयगति रुकने से चल बसे। और दो वर्ष में वे शतायु पूरी कर लेते...
       ***
       जब मैं किशोर था, तब एकबार नानाजी ने मुझे डिक्शनरी के पन्ने पलटते हुए देखा। मैं गर्मियों की छुट्टियों में नानीघर में था और दोपहर का समय बिताने के लिए कुछ न मिला, तो डिक्शनरी ही उठा लिया था मैंने। नानाजी ने देखा, तो कहा, छोड़ो यह सब। और उन्होंने रामचरित मानस निकाला। उसमें से "पुष्पवाटिका" वाला अंश उन्होंने चुना और पढ़कर मुझे समझाना शुरु किया। बहुत ही विस्तार से, बहुत ही रस लेकर उन्होंने उस अध्याय को मुझे पढ़कर सुनाया था।
       ***
       2006 में मैं नानाजी के पास इस माँग के साथ गया था कि अगर उनके पास कुछ "लिखा" हुआ हो, तो वे मुझे सौंप दें। पता चला, कुछ खास बचा हुआ नहीं है- समय के प्रवाह में ज्यादातर चीजें बह गयीं हैं। फिर भी, इधर-उधर पुरानी डायरियों में खोजने के बाद दो-चार कवितायें मिली थीं। एक कविता और एक अनुवाद को मैंने अपनी त्रैमासिक पत्रिका "मन मयूर" में प्रकाशित किया था। उन्हें ही यहाँ प्रस्तुत करता हूँ:
रुमानी कवियों से-
-हरिचरण राय, राजमहल

कंकालों की काया देखो
भोले शिशुओं का जर्जर तन
आश्रयहीन उन अबलाओं के
सुन लो करूण क्रन्दन।
              सखे, गुलामी के कष्टों को
              आजादी के सुखों से तोलो
              व्यर्थ क्यों कल्पना-जगत में
              ढ़ूँढ़ रहे हो क्या तुम बोलो?

देखो उनको जीवित ही जो
दीनों के अस्तितव मिटाते
हद से ज्यादा शोषण कर भी
स्वारथ-वश अब भी न अघाते।
              सखे, गरीबों के अभाव औ
              धनिकों के वैभव न भूलो
              व्यर्थ क्यों कल्पना-जगत में
              ढ़ूँढ़ रहे हो क्या तुम बोलो?

देखो उन शोषित जन को
जो घोर निराशा के हैं मारे
भाग्य-भरोसे झेल रहें हैं
कष्ट गुलामी के ये सारे।
              सखे, सोए जन के उर-अन्तर में
              क्रान्ति की ज्वाला दे डालो
              व्यर्थ क्यों कल्पना-जगत में
              ढ़ूँढ़ रहे हो क्या तुम बोलो?

इस कविता के साथ मेरी जो टिप्पणी थी, वह यूँ थी: "(इस कविता का रचना-काल 1938 है, जब देश गुलाम था और कवि दशम वर्ग के विद्यार्थी थे। प्रायः सात दशकों बाद, आश्चर्यजनक रुप से आज भी अपना देश कुपोषण व शोषण की समस्याओं से ग्रस्त है और आज फिर एक क्रान्ति की जरुरत महसूस की जा रही है! –सं)"
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"मन मयूर" के दूसरे अंक में उनका निम्न अनुवाद प्रकाशित हुआ, जिसके बारे में अब कुछ कहने की जरुरत नहीं है:
       समाधिलेख (An Epytaph)
       -रॉबर्ट लुईस स्टीवेन्सन

तारों भरे गगन के नीचे
मेरी समाधि होने दे
भोग चुका हूँ जीवन के सुख
सहर्ष मुझे मर जाने दे।

              मेरी समाधि पर लिख देना-
              ‘‘इसी जगह वह पड़ा हुआ है
              जहाँ थी उसकी उत्कण्ठा भारी
              सागर से घर लौटा नाविक
              घर लौटा पर्वत से शिकारी।’’
      
(अनुवाद: हरिचरण राय)

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शनिवार, 14 मार्च 2015

131. 'बादशाह-पसन्द'


       चित्र में चावल के जिन दानों को आप देख रहे हैं, वे देखने में मामूली चावल लगेंगे, मगर इनका जो स्वाद है, वह जबर्दस्त है! यह एक खुशबूदार चावल हैहमारे इलाके में इस चावल का इस्तेमाल आम तौर पर खीर बनाने के लिए किया जाता है। चावल के इस किस्म को "खिस्सापाती" कहते हैं हमारे यहाँ। वैसे, इसका एक बाजार-नाम भी है, जो मुझे बहुत पसन्द आता है- "बादशाह-पसन्द"!
       शायद आप जानते हों कि बिहार-बंगाल-उड़ीसा-असम इत्यादि राज्यों में आम तौर पर "ऊष्णा" चावल खाया जाता है, जबकि उत्तर-प्रदेश, दिल्ली इत्यादि राज्यों में "अरवा" चावल। धान से जो चावल बनता है, वह "अरवा" ही होता है, मगर देश के पूर्वी हिस्सों में धान को पहले उबाल कर फिर उसका चावल बनाया जाता है और इस प्रकार वह "ऊष्णा" या "मोटा" चावल बन जाता है। अरवा चावल खाने वाले मोटा चावल खाने में नाक-भौं सिकोड़ेंगे, तो मोटा चावल खाने वाले अरवा चावल नहीं खा पायेंगे। उपर्युक्त "खिस्सापाती" का मोटा चावल नहीं बनाया जाता। इसीलिए हमारे इलाके में इसका प्रयोग खीर, पुलाव या खिचड़ी बनाने में ही होता है।
       चावल को "ऊष्णा" का रुप क्यों दिया जाता है, यह मैं समझ नहीं पाया हूँ। शायद इससे यह सुपाच्य हो जाता है। और शायद इससे चावल का भण्डारण समय बढ़ जाता है। जो भी हो, मैं वर्षों तक दोनों में कोई भेद समझ ही नहीं पाता था। बाहर रहने के दौरान अरवा चावल खाता था और घर आने पर ऊष्णा चावल। मुझे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। शायद इसके पीछे कारण यह है कि मैं खाने का शौकीन कभी नहीं रहा। श्रीमतीजी की भी यही शिकायत है कि कभी तो कोई फर्माइश कर दिया करो कि आज नाश्ते में यह बनाओ या वह बनाओ। मगर मैंने कभी कुछ नहीं कहा। बचपन में, या नौकरी के दौरान छुट्टियों में घर आने पर भी कभी माँ से फर्माइश नहीं करता था। माँ खुद ही कभी दूध-पीठा, कभी 'ढक्कन वाली रोटी' बना दिया करती थी। श्रीमतीजी भी नाश्ते का जायका बदलते रहती है- खुद ही। वैसे, अब साहबजादे फर्माइश करना सीख गये हैं।
       खैर, बात बादशाह-पसन्द की। यह जो किस्म है चावल की, इसकी उपज बिहार-झारखण्ड के दूसरे हिस्सों में होती है या नहीं, पता नहीं। अगर नहीं होती, तो जान लीजिये कि यह हमारे इलाके की "एक्सक्लूसिव" वैरायटी है, जो सिर्फ गंगा और गुमानी नदियों के संगम वाले क्षेत्र में पैदा होती है। अगर ऐसा ही है, तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका जो स्वाद और सुगन्ध है, वह गंगा और गुमानी नदियों के जल के कारण है। बेशक, राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी की मिट्टी भी तीसरा कारक होगी। इसका फलन बहुत कम है और इसलिए किसान इसे लगाने से बचते हैं। मगर इसकी कीमत ज्यादा होती है, इससे किसानों को आर्थिक नुकसान नहीं होता। मगर फिर भी, हमारे यहाँ के किसान "स्वर्णा" या ऐसी ही किस्मों के धान ज्यादा लगाते हैं, जिनका फलन बहुत ज्यादा है- ये "हाइब्रिड" किस्में हैं। हाइब्रिड के चक्कर में देशी किस्में लुप्त हो रही हैं। कई किस्में लुप्त हो चुकी हैं। किसानों के लिए सालभर तक बीज सम्भाल कर रखना अब मुश्किल काम है। खेत जोतो, ब्लॉक से जाकर बीज ले आओ- काम खत्म!

       अभी तक यह "खिस्सापाती" या "बादशाह-पसन्द" की किस्म बची हुई है- इसे मैं सौभाग्य मानता हूँ। श्रीमतीजी उ.प्र. की हैं- उनको अरवा चावल ही चाहिए। साहबजादे को भी यही चाहिए और मुझे भी "अरवा" व "ऊष्णा" चावल के स्वाद में अन्तर का अनुभव करवा दिया गया है, सो अब हर साल इस खिस्सापाती का इन्तजाम करना पड़ता है। इसबार भागीदार पर बहुत जोर डाल कर अपने ही एक टुकड़े खेत के आधे हिस्से में इसे रोपवाया था- यह उसी का चावल का नमूना है।

रविवार, 8 मार्च 2015

130. होली'2015: रपट

5 मार्च को सुबह 9 बजे फेसबुक पर लिखा:
एक वो भी दिन हुआ करते थे, जब हफ्ता भर पहले से ही होली के गीत- जोगीरा किस्म के- यहाँ-वहाँ बजने लगते थे! खासकर, पिचकारी-रंगों की दूकानों में, ट्रक-जीपों में...
...एक यह भी दिन है कि आज होलिका दहन है और अभी तक कानों में कहीं से भी जोगीरा-सा-रा-रा- की आवाज नहीं टकरायी
मैं ढोल-मंजीरा के साथ होरी गाने की बात नहीं कर रहा हूँ- इस परम्परा के खत्म हुए दशकों हो गये... मैं तो कैसेट- अब सीडी- वाले गानों की बात कर रहा हूँ...
..क्या करुँ, खुद ही कम्प्यूटर पर गाना बजा रखा है- "रंग बरसेला हो... महीनवा आइल फागुन के..."
उसी दिन दोपहर 1 बजे लिखा:
इस पोस्ट को लिखने के बाद यही बात मैंने बिनय (बिनय भगत- वह मेरा लंगोटिया दोस्त है- फेसबुक वाला वर्चुअल दोस्त नहीं) से बतायी उस वक्त वह अपनी माइन्स में था बोला, थोड़ी देर में तुमसे मिलते हैं घण्टेभर बाद पहाड़ से आकर वह "मुन्शी पोखर पटाल" (-इसे सिर्फ बरहरवा वाले ही समझेंगे, कोई और नहीं) पर मिला राजन जी भी वहीं थे बिनय ने बताया कि जोगीरा गाने वालों से बात हो गयी है- शाम को वे लोग गाते-बजाते निकलेंगे- हो सका तो एक "जानी" भी होगा साथ में (अगर आप बिहार-यूपी के हैं, तो "जानी" समझ ही रहे होंगे, वर्ना छोड़िये, क्या कीजियेगा जानकर) और वे लोग देर रात तक ढोल-मंजीरे के साथ होरी-फाग गायेंगे. थोड़ा खर्चा है, जुगाड़ करना पड़ेगा और कुछ लोगों को खबर कर देना है ताकि हुजुम बना रहे वे लोग बिनय के घर में तीन-चार बजे आ जायेंगे, 5 बजे उत्तम के घर से काफिला निकलेगा और रात स्टेशन चौक या सार्वजनिक मन्दिर पर बैठकर गाना-बजाना होगा एक अरसे बाद यह पुरानी परम्परा फिर शुरु होगी... देखा जाय कैसा रहता है...
6 मार्च को सुबह 7 बजे फेसबुक पर:
एक जमाने में हमारे बरहरवा में होलिका की शाम "महामूर्ख सम्मेलन" हुआ करता था, जिसमें सारे बरहरवा के दिग्गज (गणमान्य) लोग शामिल होते थे, उपाधियाँ बाँटी जाती थीं, मानपत्र (बेशक, भोजपुरी में) पढ़ा एवं प्रदान किया जाता था और एक से बढ़कर एक चुटकुले लोग अपने-अपने अन्दाज में सुनाया करते थे. हँसते-ठहाका लगाते लगाते पेट में बल पड़ जाया करते थे
एक और खास चीज होती थी- नामी गिरामी लोगों के नामों के सामने हास्य/व्यंग्य/कटाक्ष वाली पंक्तियाँ/मुहावरे/गाने के बोल लिखकर उन्हें पढ़कर सुनाना। कई बार इसकी प्रतियाँ बाकायदे दीवारों पर चिपकायी भी जाती थी- रातों-रात। होली की सुबह उठते ही लोगों की नजर इनपर पड़ती थी और वे इन्हें पढ़कर मजे लिया करते थे। सच पूछिये तो उन दिनों लोगों को इन्तजार रहता था इसका कि किसपर कैसी फब्ती कसी गयी है!
वास्तव में "होली" मनाने का उद्देश्य ही है- अपने अन्दर के कचरे को निकाल बाहर करना किसी को गाली देने का मन सालभर से है, तो दे डालो- अब उसे समझना चाहिए कि आखिर किस बात के लिए यह गाली मुझे मिल रही है समझदार होगा तो समझ ही जायेगा और खुद को सुधार लेगा किसी को पसन्द करते हो, तो होली के बहाने जता ही दो- उम्र को मारो गोली- फागुन भर बुड्ढे भी देवर लगते हैं
जैसे खजुराहो मन्दिरों की बाहरी दिवारों पर कामकला की एक से बढ़कर एक मूर्तियाँ बनी हैं, इन्हें जी भर के देख लेने के बाद ही लोग गर्भगृह में प्रवेश करते हैं- देवता के सामने. (यह और बात है कि अब एक को छोड़ बाकी मन्दिरों में पूजा नहीं होती) आखिर सन्देश क्या है इस व्यवस्था के पीछे? यही न कि ईश्वर के सामने जाने से पहले हम अपनी जिज्ञासायें/लिप्सायें मिटा लें, ताकि ईश्वरभक्ति के समय मन न भटके
तो होली का सन्देश भी कुछ ऐसा ही है कि मन की बुरी भावनाओं को निकाल फेंकने की पूरी आजादी है जिनके पैर छूते हो, उसे भी आज बुरा-भला कह सकते हो- बशर्ते कि वाकई उस आदमी में कुछ कमी हो
अगर राजनीति की बात करें, तो देश के सारे प्रधानमंत्रियों पर होली पर तंज कसे जा सकते हैं, व्यंग्यवाण चलाये जा सकते हैं, मगर "लाल बहादुर शास्त्री" पर नहीं- क्योंकि उनमें कोई कमी ही नहीं थी! इसी प्रकार, आप गाँधी पर चुभती हुई पंक्तियाँ रच सकते हैं, मगर "सुभाष" पर नहीं, क्योंकि सुभाष में कोई कमी थी ही नहीं
खैर, अब भी व्यंग्य दोहे रचने की परम्परा बनी हुई है. अब गुलाम कुन्दनम साहब (रोहतास) ने ऐसे ही राजनीतिक दोहे फेसबुक पर डाले हैं- जो जोगीरा की शैली में है उनका आनन्द आप भी लें- बुरा न मानो होली है:
राजनितिक जोगीरा

1) अड़ही देखलीं गड़ही देखलीं , देखलीं सब रंगरूट
बड़ नसीब साहेब के देखलीं , बेचत आपन सूट ..... जोगीरा सा रा रा रा

जल जमीन जंगल के खातिर , अध्यादेशी रूट
संसद बइठि बात पगुरावे , साहब बेचें सूट ......जोगीरा सा रा रा रा

2) भइंस बिआइल पाड़ी पड़रू ,गाय बिआइल बाछा
भयल विकसवा पैदा पल्टू , खोल पछोटा नाचा ........जोगीरा सा रा रा रा

3) कौन दुल्हनिया डोली जाए, कौन दुल्हनिया कार
कौन दुल्हनिया झोंटा नोचे, नाम केकर सरकार .... जोगीरा सा रा रा रा

संघ दुल्हनिया डोली जाए , कारपोरेट भरि कार
धरम दुल्हनिया झोंटा नोचे , बउरहिया सरकार ....जोगीरा सा रा रा रा

4) चिन्नी चाउर महंग भइल , महंग भइल पिसान
मनरेगा क कारड ले के , चाटा साँझ बिहान .....जोगीरा सा रा रा रा

का करबा अमरीका जाके , का करबा जापान
एम डी एम क खिचड़ी खाके , हो जा पहलवान .....जोगीरा सा रा रा रा

5) इक रुपया में चार चवन्नी , चारो काटें कान
बुलेट ट्रेन में देश चढ़ल बा , परिधानी परधान ....जोगीरा सा रा रा रा

6) कौन देस के लोहा जाई , कौन देस अलमुनिया
आ कौन देस में डंडा बाजी , कौन देस हरमुनिया ..... जोगीरा सा रा रा रा

चीन देस के लोहा जाई , अमरीका अलमुनिया
आ नियामतगिरि में डंडा बाजी , संसद में हरमुनिया ....जोगीरा सा रा रा रा

7) केकरे खातिर पान बनल बा , केकरे खातिर बांस
केकरे खातिर पूड़ी पूआ , केकर सत्यानास...... जोगीरा सा रा रा रा

नेतवन खातिर पान बनल बा , पब्लिक खातिर बांस
अफ़सर काटें पूड़ी पूआ , सिस्टम सत्यानास .... जोगीरा सा रा रा रा
8 मार्च को, यानि आज:
       झूमर
होलिका (5 मार्च) की शाम जोगीरा गाने वालों का काफिला निकला तो था, मगर "जानी" का इन्तजाम नहीं हो सका- कहा गया कि इसके लिए दो दिनों पहले बात करनी चाहिए थी। मामला वैसा जमा तो नहीं, फिर भी, बरहरवा के बाजार में वर्षों बाद होलिका की शाम मृदंग ("नाल") पर थाप पड़ी। बहुत सारे रसिया जुटे। "सम्मत" (होलिका दहन) पर कुछ गानों के साथ यह कार्यक्रम रात साढ़े दस बजे खत्म हुआ। जैसा कि रामेश्वर जी ने बताया, ये लोग झूमर गा रहे हैं। बाकी रसिया लोग बीच-बीच में जोगीरा के दोहे भी जोड़ रहे थे। तय हुआ है, अगले साल ठीक से इन्तजाम किया जायेगा।

होली
होली (6 मार्च) तो वैसी ही रही, जैसी हर साल होती है। अशोक ने अपने घर के बाहर भारी-भरकम म्युजिक सिस्टम के साथ खाने-पीने का इन्तजाम कर रखा था। नया बस यही रहा कि इस बार हमारा एक पुराना दोस्त सतनाम आया हुआ था दिल्ली से।
इमली बड़ा
जैसे उत्तर-प्रदेश में होली पर घरों में "गुझिया" जरुर बनता है, वैसे, हमार्व इलाके में पूआ-पूरी के साथ "दही-बड़ा" जरुर बनता है। हमारे घर में दही-बड़े के साथ-साथ "इमली-बड़ा" जरुर बनता है। जो भी खाता है, वह इसकी तारीफ किये बिना नहीं रह सकता।
दु:खद घटना
होली की दुपहर एक दु:खद घटना घटी- एक आपराधिक छवि वाले युवक ने मेन रोड पर एक अन्य युवक को घायल कर दिया- बोतल सिर पर मारकर। बताया जा रहा है कि घायल की स्थिति गम्भीर है- उसे पहले चन्द्रगौड़ा फिर रात में कोलकाता ले जाया गया है।
ऐसी ही बातों से होली बदनाम होती है... और बहुत-से लोग होली खेलना छोड़ देते हैं...

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