मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

100. "कारवाँ": बीस साल बाद...



अपनी बात

       अपनी किशोरावस्था एवं युवावस्था के दिनों में मैं कवितायें लिखा करता था। 'कविता' क्या, बस मनोभावों को सीधे-सादे ढंग से कागज पर शब्दचित्र के रुप में उतारने का प्रयास था। तब मैं अपना उपनाम "द्विरेफ" (भौंरा) लिखा करता था। भाव पहले रूमानी हुआ करते थे, बाद में धीरे-धीरे देश और समाज के प्रति सरोकार झलकने लगे थे।
       1995 में मुझे अहसास हुआ कि देश-समाज में इतनी समस्यायें हैं और मैं रूमानी कवितायें लिख रहा हूँ! यह अहसास जागने के बाद मैंने देश-समाज की समस्याओं का अध्ययन करते हुए उनके समाधानों के बारे में लिखना शुरु किया। तब मुझे लगा कि किसी को भी अलविदा कहने का एक खास सलीका तो होना ही चाहिए। और फिर, अपनी कविताओं को एकत्र कर मैंने उसे एक कविता संग्रह के रुप में छपवा लिया- बेशक, "कारवाँ" नाम से। उन दिनों मैं ग्वालियर में था। वहीं इसे प्रकाशित करवाया।  ...इस प्रकार रूमानी कल्पनालोक, "द्विरेफ" उपनाम तथा कविता को मैंने अलविदा कहा और यथार्थ के धरातल पर उतरकर "शेखर" उपनाम के साथ मैं खुशहाल भारत के निर्माण का खाका बनाने लगा। ("खुशहाल भारत" भी प्रकाशित है।)
       तब "कारवाँ" को मैंने अपने बचपन के दोस्त रंजीत को अर्पित किया था। उसकी भूमिका में मैंने मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर को उद्धृत किया था: "दर्दे-दिल लिखूँ कब तक, जाऊँ उनको दिखला दूँ; उँगलियाँ फिग़ार अपनी, ख़ामा खूंचकां अपना।" (फिगार- घायल, खामा- कलम, खूंचकां- जिससे खून टपकता हो)
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       आज लगभग बीस वर्षों के बाद उसी "कारवाँ" को फिर से प्रकाशित करवा रहा हूँ। इस बार मैंने बँगला कवि सुकान्तो भट्टाचार्य की सात कविताओं के हिन्दी अनुवाद तथा मिर्ज़ा ग़ालिब के कुछ चुनिन्दा शेरों पर आधारित एक काल्पनिक कहानी को भी इसमें जोड़ दिया है। ये भी मेरी उन्हीं दिनों की रचनायें हैं।   
       कहते हैं कि किशोरावस्था ही वह कालखण्ड होता है, जब मनुष्य के मन में प्रेम या घृणा, दोनों में किसी एक भाव का अंकुरण होता है और उसके कदम सृजन या विध्वंस, दोनों में से किसी एक रास्ते पर चल पड़ते हैं। अगर किसी के मन में प्रेम का भाव अंकुरित करने और उसके कदमों को सृजन के रास्ते पर चला पाने में ये शब्दचित्र सफल होते हैं, तो मुझे सन्तोष होगा कि उन दिनों मैंने कुछ निरर्थक नहीं लिखा था!
       इति-

बसन्त पँचमी' 2014                                    जयदीप शेखर   
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उपर्युक्त आलेख दरअसल भूमिका है "कारवाँ" की. पुस्तक नेट पर यहाँ उपलब्ध है. 
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"कारवाँ", 20 साल पहले- 



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