रविवार, 28 जुलाई 2013

60. मिली-जुली





सावन



      आषाढ़ का दूसरा पखवारा सूखा बीता था हमारे इलाके में। उल्टे गर्मी तेज हो गयी थी।
रोपे गये धान के पौधे पीले पड़ने लगे थे, बिजड़े मुर्झाने लगे थे और कहीं-कहीं खेत में दरारें पड़ने लगी थीं। जहाँ जलाशय था, जिनके पास साधन था, वे तो पम्प सेट चला रहे थे... साधनहीन किसान इन्द्रदेव से प्रार्थना कर रहे होंगे...
हालाँकि इन दिनों दिल्ली-मुम्बई में खूब बारिश हो रही थी।
       सावन काली घटायें लेकर आया, तब जाकर लोगों की जान में जान आयी। अब फिर बची-खुची धनरोपनी शुरु हो गयी है।
       आशा है, अभी कुछ दिन अच्छी बारिश होगी, ताकि धान के खेतों में टखने भर पानी भर जाय...
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बड़हर
       चित्र में टोकरी में जो टेढ़ा-मेढ़ा फल दीख रहा है, उसका नाम "बड़हर" है। पहले हम सोचते थे कि यह हमारे इलाके का ही जंगली फल है, मगर बाद के दिनों में श्रीमतीजी ने बताया कि उत्तर प्रदेश में भी उसने इस फल को खाया है। वहाँ इसे "भद" कहते हैं। एकदम सटीक नाम है, क्यों? इस फल का आकार है ही भद्दा-सा।
       खैर, यहाँ इसके जिक्र का मकसद यह है कि अपने गृहनगर के नामकरण से जुड़ी वह किंवदन्ती या चुटकुला सुना दूँ, जो बचपन में हम सुनते थे। बहुत-से शहरों के नामकरण के बारे में ऐसे चुटकुले पाये जाते हैं।
       सर्वेक्षण के दौरान अँग्रेज अधिकारी एक ग्रामीण महिला से अँग्रेजी में पूछता है कि इस जगह का नाम क्या है? बुढ़िया के सिर पर "बड़हर" से भरी टोकरी होती है। सोचती है, इसी के बारे में पूछा जा रहा है कि टोकरी में क्या है? वह जवाब देती है- "बड़हर बा।" (भोजपुरी में "है" के लिए "बा" (या "बाटे") का इस्तेमाल होता है और हमारे इस इलाके में हिन्दी के अलावे भोजपुरी, बँगला और सन्थाली तीनों भाषाओं का प्रचलन है।)
       फिर क्या था, सर्वे में हमारे गाँव का नाम दर्ज हो गया- "बड़हरवा"!
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टिप्पणी: हालाँकि आस-पास के बँगलाभाषी देहातों में बरहरवा को "बोहेला" कहते हैं, जो सम्भवतः साँपों की देवी "बेहुला" से उत्पन्न हुआ है. हो सकता है, कभी यहाँ देवी बेहुला का प्रसिद्ध मन्दिर रहा हो.
प्रसंगवश, यह भी बता दिया जाय बेहुला-लखिन्दर का बाकायदे एक "पुराण" है, जिसका पाठ आज भी गाँवों में बहुत-से लोग करते हैं.
इसके अलावे गाँवों में कई रातों तक चलने वाला एक धार्मिक कार्यक्रम भी आयोजित कराया जाता है, जो इसी देवी को समर्पित होता है. सावन में ही इसका आयोजन होता है.
(मेरी जानकारी इस सम्बन्ध में कम है, सो मैं शर्मिन्दा हूँ. कभी ज्यादा जानकारी हासिल करके फिर लिखूँगा.)
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लम्बे पैर
       चित्र में जो लम्बा व्यक्ति दीख रहा है, वह बाँस या लकड़ी के पैरों पर चल रहा है। लम्बे पजामे में लकड़ी के पैर छुप गये हैं।
हमने सोचा था कि प्रचार या विज्ञापन का तरीका अब विलुप्त हो गया है।
मगर पिछले दिनों देखा एक व्यक्ति किसी दर्द-निवारक तेल का विज्ञापन इसी शैली में कर रहा है। छोटे-से लाउडस्पीकर से बोलते हुए और पर्चे बाँटते हुए।  
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