शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2022

271. मुस्कान

 

पिछले दिनों हमने एक गायत्री हवन करवाया था। प्रसाद में खीर बननी थी। तय हुआ कि खीर के साथ एक-एक केला दिया जाय और एक-एक छोटा वाला गुलाब-जामुन भी खीर में डाल दिया जाय। एक रोज पहले शाम को हम मित्र राजेश के साथ दो-तीन मिठाई-दुकानों पर गये, पर सबने यही कहा कि एकाध घण्टे पहले बोलने से काम बन जाता- यानि 100 नग छोटे गुलाब-जामुन बनाने लायक 'छेना' वे मँगवा लेते। अब नहीं हो सकता।

तब राजेश ने पतना चौक (हमारे कस्बे का ही एक चौक, लेकिन मुख्य बाजार से दूर होने के कारण उस तरफ हम लोगों का जाना-आना कम होता है) वाली मिठाई-दुकान की याद दिलायी कि वहाँ तो छोटे वाले गुलाब-जामुन रोज बनते हैं। बाकी दुकान वालों ने छोटे गुलाब-जामुन बनाना छोड़ दिया है- वे सिर्फ बड़े गुलाब-जामुन बनाते हैं- 10 से 12 रुपये प्रति नग, जबकि पतना-चौक वाली उस दुकान में अब भी बड़े के साथ छोटे गुलाब-जामुन बनते हैं- प्रति नग मात्र 5 रुपये।

तो हम वहाँ पहुँच गये। पहले खुद रसगुल्ले खाये, फिर अपने गुलाब-जामुन का ऑर्डर दिया। इसके बाद दुकान वाले से कहा- एक तस्वीर लें? वे राजी हुए। राजी होने के बाद उनके चेहरे पर जो मुस्कान उभरी, उस मुस्कान ने हमें यह पोस्ट लिखने के लिए बाध्य किया।

शायद ऐसी ही मुस्कान को “नैसर्गिक” मुस्कान कहते हैं। आपने ध्यान दिया होगा कि विज्ञापनों के जो किरदार होते हैं, मुस्कान उनके चेहरे पर भी होती है, लेकिन उनमें बनावटीपन या कृत्रिमता झलकती है। इसके मुकाबले सरल-हृदय लोगों की मुस्कान स्वाभाविक होती है।

हमें जानकारी नहीं है, पर लगता है कि मुस्कान पर कुछ मनोवैज्ञानिकों ने शोध जरूर किया होगा। शोध नहीं हुआ है, तो होना चाहिए।

मुस्कान का जिक्र आने पर सबसे पहले मेरा ध्यान बुद्ध की मुस्कान की ओर जाता है। ऐसी मुस्कान को क्या कहेंगे? “पवित्र” मुस्कान शायद उपयुक्त नहीं है, कुछ और कहना पड़ेगा।

एक होती है- अबोध बच्चों की मुस्कान, जिनके बारे में कहा जाता है कि यह ईश्वर की मुस्कान है। फिर एक होती है, छोटे बच्चों की मुस्कान, जब आप उनका हौसला बढ़ा रहे होते हैं- जैसे, वाह, यह चित्र तो तुमने बहुत बढ़िया बनाया है। एक और होती है- लज्जा के साथ मुस्कान। किसी बड़ी होती हुई लड़की की तारीफ की जाती है, तब यह मुस्कान उभरती है। एक मुस्कान आन्तरिक खुशी के समय उभरती है। अब जैसे कोई जोड़ा विवाह की रजत या स्वर्ण जयन्ती मना रहा हो, उस समय जब उनकी तारीफ की जाती है, तब उनके चेहरों पर उभरने वाली मुस्कान आन्तरिक खुशी वाली होती है। बहुत ही आम व्यक्ति अपने किसी काम में व्यस्त हो और आप अचानक उनसे कहें कि एक तस्वीर ले रहे हैं, तो उनके चेहरे पर जो मुस्कान तैरेगी, हम उसे ही “नैसर्गिक” मुस्कान कहना चाहेंगे। वह बच्चा या अबोध नहीं है, उसने ध्यान करके आध्यात्मिक उन्नति नहीं की है, वह दुनियादारी में लिप्त है, लेकिन वह चूँकि “सरल-हृदय” है, इसलिए उसके मुस्कान को हम नैसर्गिक कहेंगे।

एक मुस्कान को अलौकिक कहा जा सकता है- जब आँखों से खुशी के आँसू झर रहे हों या आँखें डबडबा आयी हों और चेहरा मुस्कुरा रहा हो। इसकी विपरीत स्थिति भी होती है- जब मन में दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा हो और परिस्थितिवश मुस्कुराना पड़ रहा हो। ऐसी मुस्कान विषण्ण होती है; कारुणिक या करूण भी कह सकते हैं।

बाकी कुटिल मुस्कान, व्यंग्य वाली मुस्कानों का अपना एक एक अलग क्षेत्र है।

फिलहाल इतना ही।

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पुनश्च: लगे हाथ उस हवन का एक विडियो भी आप यहाँ देख सकते हैं। 

पुनश्च 2: ऊपर लज्जा के साथ एक मुस्कान का जिक्र है, जो आम तौर पर बढ़ते बच्चों (किशोर वय के) में पायी जाती है। याद आया कि हमने बहुत पहले कुछ ऐसा पढ़ा था कि चूँकि अब किशोर वय के ज्यादातर बच्चे लज्जा के साथ मुस्कुराना भूल रहे हैं, इसलिए उनके चेहरे की प्राकृतिक रौनक घट रही है। दरअसल, इस तरह की मुस्कान के दौरान चेहरे का रक्त का संचरण बहुत ज्यादा बढ़ जाता है (कहावत भी है- शर्म से गाल लाल हो जाना), जो चेहरे की त्वचा की रंगत को बढ़िया बना देता है। अब बच्चे कम उम्र में परिपक्व हो रहे हैं, इसलिए लजाना-शर्माना भूल रहे हैं। नतीजा? चेहरे पर रौनक की कमी और उस कमी को पूरा करने के लिए मेकअप का ज्यादा उपयोग। मेकअप के ज्यादा उपयोग का नतीजा? यह सर्वविदित है।

सोमवार, 18 जुलाई 2022

270. ओलमोचा

 


                "ओल" के बारे में तो सभी जानते होंगे- इसे "सूरन" और "जिमिकन्द" कहते हैं, लेकिन ओल के पौधे के बारे में सब नहीं जानते होंगे। इसके पौधों को हमारे इलाके में "ओलमोचा" कहते हैं। बरसात शुरू होते ही ये पौधे घरों के पिछवाड़े में, परती जगहों में और 'घूरे' (जहाँ घरों का कचरा फेंका जाता है) पर उगने लगते हैं। आम तौर पर साफ-सफाई के समय इन्हें उखाड़ कर फेंक ही दिया जाता है, लेकिन पहाड़ियों (हमारे यहाँ की 'राजमहल की पहाड़ियाँ') पर जो ओलमोचे उगते हैं, उन्हें बाकायदे काटकर आदिवासी महिलाएं बाजार में बेचने के लिए लाती हैं और बरसात के उन शुरुआती दिनों में लोग बड़े चाव से उसके तनों की सब्जी खाते हैं। पहाड़ियों पर उगने वाले ये ओलमोचे होते भी बड़े-बड़े हैं।

                ओलमोचे की सब्जी बनाना कोई आसान नहीं है- हर कोई नहीं बना सकता। बनायेगा भी तो वह स्वाद नहीं आयेगा, जिसके लिए इसे खाया जाता है। घरों में अनुभवी महिलाएं ही इनकी सब्जी बनाती हैं। हालाँकि विधि मामूली है- लेकिन "खटाई" की मात्रा जो इसमें मिलायी जाती है, उसी में अनुभव काम आता है। खटाई कम हो जाय, तो खाते समय मुँह में खुजली हो सकती है। बहुत-से लोग इसे काटते-छीलते समय हाथों में प्लास्टिक की थैलियाँ पहनते हैं- कहा जाता है कि ऐसा न करने से हथेलियों में खुजली हो सकती है।

              

ओलमोचा की सब्जी बनाने की विधि, जैसा कि मेरी चाचीजी ने बताया-

पहले ओलमोचा को छीलकर, काटकर पानी में उबालना है।

उबालने के बाद इस पानी को फेंक देना है।

अब लहसून, सरसों और हरी मिर्च को पीसकर उसका पेस्ट बना लेना है।

कड़ाही में तेल डालकर पेस्ट को भुनना है- जैसे कोई भी मसाला भूना जाता है।

अब उबाले हुए ओलमोचे को अच्छी तरह से निचोड़ कर भुने हुए मसाले में डालना है।

इसके बाद नमक, हल्दी और नीम्बू का रस इसमें मिलाना है।

नीम्बू के रस के स्थान पर किसी भी खटाई का प्रयोग किया जा सकता है।

मिश्रण को तब तक भूनना है, जब तक मिश्रण कड़ाही न छोड़ने लगे।

सब्जी तैयार है।