रविवार, 27 अगस्त 2017

183. आरामकुर्सी



  


     

       बहुत पहले घर में दो फोल्डिंग आरामकुर्सियाँ हुआ करती थीं, जो समय के साथ टूट-फूट कर इधर-उधर हो गयीं
       दो-तीन साल पहले मन में आया कि वैसी ही एक आरामकुर्सी ला दूँ पिताजी के लिए, मगर पता चला, अब ऐसी आरामकुर्सियाँ बनती नहीं हैं। नेट पर खोजा, तो पता चला, मिल तो सकती हैं, मगर हमारे कस्बे तक डिलिवरी नहीं हो सकती। यह कोई छोटी-मोटी चीज तो है नहीं कि पैकेट में आ जाय। तो जाहिर है, डिलिवरी चार्ज ज्यादा होग- कीमत तो ज्यादा थी ही।
       फिर आरामकुर्सी बनाने की विधि खोजा, वह भी मिली। कई बढ़ईयों को दिखाकर कहा- यह बनवाना है, मगर जैसा कि हमारे इलाके में रिवाज है- कोई 'ना' नहीं कहेगा, हाँ-हाँ कहता रहेगा, मगर करेगा नहीं! और एक बात है कि "बनी-बनायी लीक से हटकर चलना" या जो काम पहले नहीं किया है, वैसे किसी काम में हाथ डालना, यानि "एक्सपेरिमेण्ट करना" हम भारतीयों के लिए "पाप" से कम नहीं समझा जाता! कुल-मिलाकर कोई भी बढ़ई इसे बनाने के लिए आगे नहीं आया। समय बीतता रहा और पिताजी गुजर गये। इसी के साथ आरामकुर्सी वाली बात भी हम भूल-भाल गये।
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       बहुत दिनों बाद अचानक एकदिन ध्यान गया- पिताजी नहीं रहे तो क्या हुआ, माँ है, चाचीजी हैं और यहाँ तक कि अंशु की माताजी भी फिलवक्त यहीं हैं, तो फिर इनके लिए आरामकुर्सी क्यों नहीं? फिर उस प्रिण्ट-आउट को निकाला और फिर बढ़ई लोगों से सम्पर्क साधना शुरु किया... फिर वही जवाब कि हाँ फलाँ दिन आकर बना देंगे और फलाँ दिन को कोई और बहाना।
       अन्त में गोपाल राजी हुआ। (दो-ढाई साल से लटकाने वालों में यह भी शामिल था।) मेरे ख्याल से, इस बार वह इसलिए राजी हुआ कि उसे जयचाँद ने डाँट लगायी। दरअसल एकबार जब मेरा फोन उसके पास गया, तो वह जयचाँद के साथ था। जयचाँद का सहपाठी रह चुका है वह। फोन के बारे में जयचाँद ने पूछा और पूरी बात सुनकर उसे बहुत झाड़ पिलायी उसने कि क्यों नहीं यह काम करते हो!
       खैर, जो भी हो, गोपाल राजी हुआ और आरामकुर्सी बनाने की बतायी गयी विधि के अनुसार कल उसने एक कुर्सी तैयार की। आरा मिल से लकड़ी लाने हमदोनों ही गये थे। उसका कहना था कि अभी एक ही कुर्सी के लिए लकड़ी लेते हैं, बन जाय, तो फिर दो और कुर्सियों के लिए लकड़ी ले लेंगे। कल एक बनी। अब इस पर एक मोटे कपड़े की 'स्लिंग' या झूला लगाने की जिम्मेवारी अंशु की है। वादे के अनुसार, दो-चार दिनों बाद आकर गोपाल और भी दो कुर्सियाँ बना जायेगा।
       फिलहाल, आरामकुर्सी के 'फ्रेम' की फोटो हाजिर है। जब पूरी तरह तैयार हो जायेगी, तब एक और तस्वीर लगा दी जायेगी।
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       और हाँ, वह लिंक, जहाँ से हमने आरामकुर्सी बनाने की विधि ली थी: http://www.ana-white.com/2011/06/wood-folding-sling-chair-deck-chair-or-beach-chair-adult-size

पुनश्च (5.9.17): 

जैसा कि तय हुआ था, बीते रविवार को गोपाल ने आकर 2 और आरामकुर्सियाँ तैयार कर दी.   


गुरुवार, 24 अगस्त 2017

182. 24 अगस्त



       आज ही के दिन 30 साल पहले अंशु के चेहरे पर तेजाब डाला गया था। वह साल था 1987। तब वह ग्यारहवीं की छात्रा थी। घटना मेरठ के पास गढ़मुक्तेश्वर में घटी थी।
       तेजाब हमले के बाद अंशु के शरीर पर छोटे-बड़े कुल-मिलाकर 18 ऑपरेशन हुए थे- मेरठ, अलीगढ़, दिल्ली में। कह सकते हैं कि सारा परिवार सड़कों पर आ गया था- ईलाज के दौरान। कुछ रिश्तेदारों ने तो यहाँ तक कहा था कि लड़की है, मर जाने दिया जाय; बच भी गयी, तो शादी कौन करेगा इससे? मगर अंशु के पिताजी ने अंशु को बचाने के लिए और बाद में उसके जीवन को सँवारने के लिए क्या कुछ नहीं किया!
       यह वह समय था, जब तेजाब हमले की घटनायें ज्यादा सुनने में नहीं आती थीं। इसलिए उस समय यह घटना काफी चर्चित हुई थी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने इस अपराध की घटना को प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया था। तब बहुत-से लोग अस्पताल में अंशु से मिलने आते थे, जिनमें से दलाई लामा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। एक अमेरिकी लेखक Thomas Easley तो अमेरिका ले जाकर अंशु का ईलाज करवाना चाहते थे, मगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाया। वैसे, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अंशु के नाम से बाकायदे फाईल बनवा रखी थी और उन्हीं के प्रयासों से दिल्ली के 'एम्स' में अंशु के कुछ ऑपरेशन हुए। लैला कबीर ने 'अग्नि फाउण्डेशन' की स्थापना की थी अंशु की मदद के लिए और मेरठ की 'सुभारती' संस्था ने अंशु को नौकरी दी थी।
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       एक जमाने बाद 'प्रभात खबर' की सम्पादिका दक्षा वैद्यकर जी ने अंशु से फोन पर बातचीत करके अंशु की कहानी को अखबार में प्रकाशित किया था। इसके पहले 1996 में भी अंशु की कहानी फिर से अखबारों में छपी थी, जब उसका विवाह हुआ था।
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       अंशु पर 1987 से लेकर दक्षा वैद्यकर जी के आलेख (2013) तक- अँग्रेजी-हिन्दी में जितनी भी रचनायें प्रकाशित हुई हैं, उन सबको एक पुस्तक के रुप में प्रस्तुत करने की इच्छा थी, अफसोस कि दिशा में एक कदम भी मैं आगे नहीं बढ़ सका हूँ। दरअसल, सारी सामग्री को मुझे ही टाईप करनी है और यह बड़ा ही कष्टसाध्य काम है। हाँ, पुस्तक के लिए एक 'आवरण' के बारे में मैंने भले सोच लिया था कि यह कैसा होगा।
        फिलहाल उन प्रकाशित सामग्रियों की तस्वीरें अंशु के ब्लॉग पर ही मौजूद हैं। ब्लॉग का नाम है- 'मेरी कहानी'
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       मनेर की तेजाब पीड़िता बहनों (चंचल और सोनम) के बारे में 'देश-दुनिया' पर एक आलेख ('तेजाब' शीर्षक से) लिखते समय मैंने अंशु का जिक्र किया था। दुःख की बात है कि अभी कुछ ही अरसा पहले चंचल का देहान्त हो गया।
       इसके अलावे, इसी ब्लॉग पर एक और आलेख है अंशु पर 'सोलहवाँ बसन्त' नाम से।
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शनिवार, 19 अगस्त 2017

181. छायाकारी




"लैण्डस्केप" फोटोग्राफी के सम्बन्ध में हमने कहीं पढ़ा था कि इसके फ्रेम में एक तिहाई जमीन और दो-तिहाई आकाश होना चाहिए। विस्तृत मैदान या सागर के मामले में यह सही भी लगता है। जब पहाड़ियाँ काफी दूर हों- क्षितिज पर, तब भी यह नियम सही लगता है। मगर जब पहाड़ या पहाड़ियाँ बहुत दूर न हों, तब भी क्या यही नियम अपनाया जाना चाहिए?
मेरे ख्याल से, नहीं। तब आकाश के हिस्से में से एक-तिहाई हिस्सा काटकर पहाड़ या पहाड़ी को दे देना चाहिए। यानि जब पहाड़/पहाड़ी बहुत दूर न हो, तब लैण्डस्केप में एक तिहाई जमीन, एक तिहाई पहाड़/पहाड़ी और एक तिहाई आकाश होना चाहिए। बेशक, ऐसा मेरा मानना है, छायाकारी के सिद्धान्तों के हिसाब से यह गलत भी हो सकता है।
ऊपर मैं जिस लैण्डस्केप तस्वीर को प्रस्तुत कर रहा हूँ, उसमें मैंने इसी हिसाब से खींचा (और बेशक, 'क्रॉप' किया) है कि एक तिहाई जमीन, एक तिहाई पहाड़ और एक तिहाई आकाश रहे।
दूसरी बात, मुझे ऐसा लगता है कि लैण्डस्केप में आकार 12:6 ही रहे, तो अच्छा। अपने फेसबुक अल्बम 'Beauty of Rajmahal Hills' में सारी तस्वीरों को मैं 12:6 के अनुपात में ही क्रॉप कर रहा हूँ। यह भी फोटोग्राफी के नियमों के अनुसार गलत हो सकता है। हो सकता है, नियमानुसार अनुपात 12:8 बताया गया हो।
सामान्य नियम के अनुसार, सूर्योदय के लगभग 2 घण्टे बाद और सूर्यास्त के लगभग 2 घण्टे पहले तस्वीरों में प्रकाश सही ढंग से पड़ता है। ऊपर की तस्वीर सूर्योदय के लगभग 2 घण्टे बाद की ही है।
एक और बात, जो मैंने अनुभव से पाया है कि वर्षा होने के बाद तस्वीरें ज्याद स्पष्ट आती हैं, क्योंकि तब वायु में धूलकण की मात्रा बहुत कम होती है। ऊपर वाली तस्वीर ऐसे ही समय की है। तस्वीर में भले पता न चले, पर आँखों से उस वक्त पहाड़ी के सीने पर इन्सानी पंजों से बने खदानों का आभास स्पष्ट हो रहा था, जब मैं इस तस्वीर को खींच रहा था।
"पोर्ट्रेट" फोटोग्राफी मैंने कभी पसन्द नहीं की। फिर भी, एक नमूना मैं नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ। हाँ, इसका आकार मैंने 12:8 ही रखा है।    

पुनश्च: अभी कुछ देर पहले ही पता चला कि आज 'विश्व छायाकारी दिवस' है और संयोग देखिये कि तीन-चार दिनों पहले मैंने इस पोस्ट की कुछ पंक्तियाँ लिख डाली थी और आज इसे मैं ऐसे भी पोस्ट करने ही वाला था!