मंगलवार, 28 अगस्त 2012

‘होम सिकनेस’



      कई महीने हो गये, मनिहारी घाट पर चने की सब्जी के साथ मैदे की गर्मा-गर्म नर्म कचौड़ियाँ खाये हुए, जो मेरे बेटे तथा श्रीमतीजी को खासतौर पर पसन्द है। घाट पर नाश्ते की ये दूकानें फूस की छोटी-बड़ी झोपड़ियों में चलती हैं, जिन्हें गंगाजी के घटते-बढ़ते जलस्तर के हिसाब से अक्सर आगे-पीछे खिसकाना पड़ता है। इस घाट पर आते ही- अगर मौसम साफ हुआ, तो- गंगाजी के उस पार राजमहल की नीली पहाड़ियों की एक शृँखला दीखने लगती है तथा उसपार के भोजपुरी बोलते लोग भी मिलने लगते हैं... और मुझे लगता है- हाँ, मैं बस अपने इलाके में पहुँचने ही वाला हूँ...!
      कई महीने हो गये, स्टीमर की छत पर खड़े होकर हवा खाते हुए गंगाजी की लहरों को पार किये हुए। इन स्टीमरों को यहाँ लॉन्च कहते हैं। दो बड़े स्टीमर भी हैं, जिन्हें एल.सी.टी. कहते हैं और जिनकी डेक पर एक-दो नहीं, नौ-नौ ट्रक सवार होते हैं- झारखण्ड से पत्थर लाने वाले। वैसे, इस डेक पर ट्रैक्टर, सूमो-बोलेरो, बाईक से लेकर गाय-भैंस तक को गंगा पार कराया जाता है।
      कई महीने हो गये, साहेबगंज रेलवे स्टेशन के फर्श पर अखबार बिछाकर बैठकर अपनी पैसेन्जर ट्रेन का घण्टों इन्तजार किये हुए। कभी-कभी पास के मन्दिर में हम जाते हैं- ताजे पानी के लिए। इस दौरान कभी छोले, कभी मसाला-मूढ़ी, कभी झूरी (यह गुड़ से बनी देहाती मिठाई है, सिर्फ मैं ही खाता हूँ- बेटा और श्रीमतीजी नहीं), तो कभी पपीते के मुरब्बे का दौर चलता रहता है; या फिर, बेमकसद हम प्लेटफार्म पर टहलते रहते हैं।
      कई महीने हो गये, अपने इलाके की सवारी रेलगाड़ियों में सफर किये हुए, जो 50-60 किलोमीटर की दूरी ढाई-तीन घण्टे में पूरा करती हैं- एकदम अलमस्त अन्दाज में- जब मन किया चल पड़ी, जहाँ मन किया ठहर गयी...!
      कई महीने हो गये, राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी पर बसे छोटे-छोटे स्टेशनों से गुजरे हुए, जिनके आस-पास सन्थालों, पहाड़िया लोगों तथा अन्य सीधे-सादे लोगों की बस्तियाँ बसी होती हैं और जहाँ से गुजरते वक्त मुझे अक्सर यह महसूस होता है कि काश, ऐसे किसी स्टेशन पर मैं एक पूरी दुपहर और शाम गुजारुँ- झोपड़ीनुमा दूकान की बेंच पर बैठकर मूढ़ी, आलूदम, चॉप, प्याँजी खाते हुए... और जब पहाड़ियों के पीछे सूरज डूबने लगे, तब कोई ट्रेन पकड़कर घर लौट जाऊँ। और हाँ, अभी बरसात के बाद वाले भादों के इस महीने में न केवल पहाड़ियाँ और तलहटी हरी-भरी हो रही होंगी, बल्कि खेत भी धान के पौधों से लहलहा रहे होंगे।
       कई महीने हो गये, अपने घर के आँगन तथा पिछवाड़े को देखे हुए, जिसका चप्पा-चप्पा अभी हरा-भरा हो रहा होगा...! अभी शायद गुड़ तथा तीसी न मिले, सो हो सकता है कि माँ खोये का ही पीठा बनाये किसी दिन मेरे लिए!
      कई महीने हो गये, अपने लंगोटिया दोस्त रंजीत की दूकान की सीढ़ियों पर फूँक से धूल साफ करके बैठे हुए और कभी-कभार उत्तम तथा कुछ अन्य दोस्तों और आस-पास के परिचितों के साथ गप्पे हाँके हुए।
      हिसाब लगाता हूँ, तो पाता हूँ कि पाँच महीने हो गये हैं। पिछली बार होली में घर गया था, जब आम के पेड़ ही नहीं, आदमी भी बौराये हुए होते हैं। हवाओं में मादक खुशबू और दिशाओं में अलमस्ती छाई हुई होती है। इसबार जयचाँद राजमहल की पहाड़ी के अपने पसन्दीदा ‘स्पॉट’ पर मुझे रात में ले गया था- चाँदनी रात थी बेशक। उसने कहा भी था- कभी बरसात में यहाँ आईये, फिर देखिये...!
      कहाँ, बरसात तो बीत चला! अब भी थोड़ा समय बचा है... मैं ‘होम-सिकनेस’ महसूस कर रहा हूँ... जल्दी ही घर जाने की योजना बनानी पड़ेगी..... 

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

स्याही वाला कलम




      बैंक में अपनी शाखा के काउण्टर पर मुझे स्याही वाले कलम से काम करते देख कई लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं- ‘आप अभी तक इस कलम का इस्तेमाल करते हैं?’ या फिर- ‘स्कूल के बाद पहली बार इस कलम को देख रहे हैं!’
      चार वर्षों में अब तक दो ही व्यक्तियों ने स्वीकार किया है कि वे भी स्याही वाला कलम चलाते हैं
      वायु सेना के दिनों में भी मैं एक स्याही वाला कलम हमेशा अपने साथ रखता था। वहाँ उन दिनों चूँकि ज्यादातर काम की ‘कार्बन प्रतिलिपियाँ’ बना करती थीं, इसलिए स्याही वाले कलम का इस्तेमाल कम होता था; फिर भी, मैं उसे रखता जरुर था।
      घर पर तो लिखने का काम मैं प्रायः स्याही वाले कलम से ही करता हूँ।
      लोग इस बात पर आश्चर्य करते हैं कि मैं आज भी स्याही वाला कलम चलाता हूँ; जबकि मुझे आश्चर्य इस बात का है कि लोग स्याही वाला कलम चलाते क्यों नहीं? कलम मिलता है, स्याही मिलती है, निब तथा ड्रॉपर भी मिलते हैं, फिर इसका इस्तेमाल हम क्यों न करें? यह किसी भी ‘रिफिल’ से सस्ता भी पड़ता है।
      ***
      कुछ महीनों पहले एक बुक डिपो के मालिक ने बैंक में मुझे सूचित किया- ‘कुछ नये फाउण्टेन पेन आये हुए हैं, आकर देख लीजियेगा।’ मैं बाद में कभी दूकान पर गया, तो पाया दक्षिण भारत की मशहूर कम्पनी ‘Chelpark’ ने दो नये स्याही वाले कलम बनाये हैं- एक का नाम था- ‘Commander’ और दूसरे का- ‘Terminator’। ‘कमाण्डर’ बड़ा कलम था, तो ‘टर्मिनेटर’ स्लिम। दोनों कलम आकर्षक थे। अब तक इस कम्पनी के स्याही का ही मैंने इस्तेमाल किया था।  
      मैंने दोनों मॉडल के एक-एक कलम लिये। ‘कमाण्डर’ के पैसे वाइजुल साहब (दूकान के मालिक, उनका अपना प्रेस भी है) ने नहीं लिये- बोले, ‘यह हमारी तरफ से है।’ यह शायद जनवरी माह की बात है। प्रायः डेढ़ महीने बाद जब मेरी पुस्तक नाज़-ए-हिन्द सुभाष छपी, तो इसी ‘कमाण्डर’ कलम से हस्ताक्षर करके मैंने वाइजुल साहब को पुस्तक की एक प्रति भेंट की।
      ‘टर्मिनेटर’ मैंने अभिमन्यु (मेरे बेटे) को दे दी।   
‘कमाण्डर’ ने कुछ दिनों तक तो परेशान किया- निब के पास से स्याही रिसती थी, मगर बाद में यह शिकायत दूर हो गयी। अब सोच रहा हूँ इस मॉडल के कुछ और कलम खरीद कर रख ही लूँ।
इसके पहले मैंने एक दूकान से ‘फ्लोरा’ के पाँच कलम खरीद कर रख लिये थे, एक जगह निब मिली, तो दर्जन भर निब ले लिया था। इसी प्रकार, चार-पाँच ड्रॉपर भी लेकर रख लिये हैं। हाँ स्याही जब खत्म होती है, तब दो दवात ले आता हूँ- वैसे आप समझ सकते हैं- स्याही खरीदने की नौबत भी बहुत दिनों के बाद ही आती है।  

शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

'काला धागा'


कल सुबह जब मैं दीदी के पास राखी बँधवाने बैठ गया, तब मेरा ध्यान गया कि मेरी दाहिनी कलाई पर एक काला धागा बँधा हुआ है। इस ‘काले’ धागे के रहते राखी बँधवाते मुझे ठीक नहीं लगा और मैंने भगनी से एक कैंची मँगवाकर उसे काट दिया।
      इस धागे को मैंने पिछले साल अगस्त में बाँधा था- अन्ना के आन्दोलन के दौरान। चूँकि मैं सक्रिय रुप से आन्दोलन में शामिल नहीं था, अतः मैं दिनभर का उपवास रखता था और ‘कु’व्यवस्था के प्रति विरोध के प्रतीक के रुप में मैंने एक काला धागा कलाई पर बाँध लिया था।
      अन्ना का अनशन समाप्त होने पर भी इस धागे को मैंने नहीं काटा था- सोचा, जब संसद लोकपाल का गठन कर देगी, तब इसे काटूँगा।
      इसके बाद मुम्बई में अन्ना का एक आन्दोलन हुआ, पर पता नहीं क्यों, मेरी अन्तरात्मा ने उन्हें ‘नैतिक समर्थन’ देने के लिए मुझे नहीं कहा। फिर राजघाट पर एक दिन का अनशन हुआ और अभी आज जन्तर-मन्तर पर अनशन-आन्दोलन समाप्त हुआ- मेरी अन्तरात्मा की तरफ से कोई आवाज नहीं आई कि मैं भी उपवास रखूँ या उन्हें नैतिक समर्थन देते हुए ब्लॉग/फेसबुक पर कुछ लिखूँ।
      अब मैं यह सोचकर आश्चर्य-चकित हो रहा हूँ कि जिस वक्त मैं अपनी कलाई के उस काले धागे को काट रहा था- ठीक उसी वक्त टीम अन्ना की कोर-कमिटी अनशन-आन्दोलन की राह छोड़कर ‘राजनीति में उतरने’ के लिए अन्तिम निर्णय ले रही होगी! यानि मेरी अन्तरात्मा ने बिलकुल सही समय पर उस काले धागे को हटवा दिया।
      आशा करता हूँ कि मेरी अन्तरात्मा या मेरी छठी इन्द्रिय आगे भी इसी प्रकार मुझे सही निर्णय लेने में सहायता करती रहेगी...